Wing Up

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Monday, 11 August 2014

गुंजाइश-ए-Independence



इस अगस्त इंडिया की नयी जनरेशन दो हिस्सों में बटी हुई है. एक जिनकी प्रोफाइल पर तिरंगा लगा हुआ है और दुसरे जो इस बात से चिढ़े हुए हैं की "भाई ये ढकोसला क्या है".लेकिन इन दोनों की सोच में कितनी भी असमानताएं क्यूँ ना हों एक चीज़ है जो इन्हें जोडती है. क्या है वो एक चीज़..?? बोलो बोलो ?? "यही की हम भारतीय है.".. जी हाँ यही जवाब मिलता है आपसे और हमसे ...क्यूंकि यही जवाब हमको और आपको बचपन से रटाया जाता है.. और जैसे 'mass' और 'volume' दिए जाने पर आप बिना सवाल सुने 'density' निकाल कर चीख उठते थे, आज आपको एह्सास होता है की आप कुछ ज्यादा नहीं बदले. आज भी आप रिएक्शन पर एक्शन से ज्यादा यकीन करते हैं. और जहाँ तक रहा मेरे सवाल(जो एक करोड़ के लिए पुछा जा रहा था ) के सही जवाब का, तो वो ये है की इन दोनों तरह की जनरेशन को जोडती है इन दोनों के विचारों का खोखलापन (और इस तरह बड़ी ही बेदर्द तरीके से आप एक करोड़ रुपये हार जाते हैं).

अब दूसरा सवाल उठता है की क्या हम सभी इस विचारहीनता के शिकार हैं (जी नहीं ये दो करोड़ का सवाल नहीं है...कृपया छिछोरापंथी ना करें ) ? इस तरह के सवालों का कोई लिखित जवाब या निष्कर्ष नहीं होता..इसका जवाब हमारे और आपके रोज़मर्या की जिंदगी से निकल कर आता है

आज हम बड़े ही शान से कहते हैं की हम आज़ाद हैं (अरे हाँ हाँ ... you random citizen जिसके DP पर तिरंगा नहीं है तुम भी आज़ाद हो )..लेकिन इस आज़ादी का मतलब क्या है और हमने इस आजादी के साथ क्या क्या अठखेलियाँ की हैं ये जानना उतना ही ज़रूरी है हमारे लिए. एक बात तो बहुत ही साफ़ है की हम आज़ादी के वक़्त में हुई कुर्बानियों को ना तो महसूस कर सकते हैं और ना ही उसकी गहराई को भांप सकते हैं.और मुझे आपको हमारे इतिहास में ले जाने का ही कोई इरादा भी नहीं है (हम महानुभाव.. वर्तमान तो संभाल नहीं पा रहें हैं...इतिहास तो..टनन्न्नन्न..संभालेंगे ). लेकिन आज की जो हमारी आज़ादी है वो हमें तोहफे में बिना किसी मेहनत की मिली है और इसे हम अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड के दिए किसी तोहफे से ज्यादा संभाल कर नहीं रखते (oh yeah... here comes the trick).

15 तारीख को जिस आज़ादी को हम पूरी श्रधा से लहराते हुए चलते हैं उसी को 16 तारिख को जमीन से उठाने में हमारी कमर के साथ हमारी आज़ादी भी दम तोड़ देती है. अगर मैं आज आपको बता दूँ की इस बार इंडिपेंडेंस डे सन्डे को पड़ रहा है तो आपका मुंह उतर जाता है (अरे आप तो घबरा कर कैलेंडर देखने लग गए... बड़े कमज़ोर दिल के होगये हैं आप तो). आज विदेशी कंपनियां हमें इस "आज़ाद दिवस" के बदले बोनस देने की बात कहती हैं और हमें इस  ऑफर में कोई बुरे नहीं नज़र आती. .... "अरे ये क्या बात हुई... आप ज़बरदस्ती इंडिपेंडेंस डे के पीछे पड़ गए हैं...ऐसा तो हम अपने त्यौहार के वक़्त भी करते हैं, तब क्यूँ नहीं ये देशभक्ति जैसे सवाल उठाये आपने?? " ... ज़नाब हम भी यही कहना चाह रहे हैं..की सवाल तो हमारी आज़ादी का कभी था ही नहीं...सवाल था तो ये की उस आज़ादी के साथ हम न्याय कर रहे हैं की नहीं.

आज़ादी आपका अधिकार है. जन्मसिद्ध अधिकार
. लेकिन अपने अधिकारों के साथ उनसे जुड़े अपने कर्तव्यों को जानना और उनपर अमल करना भी उतना ही ज़रूरी है. (थोड़ी तबाही हिंदी हो गयी ना... )

आज जब हम रोड के किनारे झंडे खरीदते हुए कुछ चिल्लर उन नन्हे हाथों पर रखते हैं तो देशभक्ति की ये अंधी भावना हमें हमारी आजादी के भले ही करीब ले जाए लेकिन भारत के एक बड़े हिस्से को आज भी आज़ादी के मायनों से कोसो दूर रखती है.
आज जब हम अपने आजाद देश के किसी भी कोने में बेफिक्री से घुमते हुए थक कर पास वाले चाय की दूकान पर बैठते हैं और "छोटू एक कप चाय इधर देना" कहते हैं तो आपकी आज़ादी किसी मासूम की कोमल उँगलियों के बीच अटके कप की मोहताज हो जाती है.
हमारे यहाँ की शादियों में जब सैकड़ों की तादाद में खाने फेंके जाते हैं तो हमारी आज़ादी सड़क उस पार तीन दिन से भूखा लाचार सा खड़ा दिखता है.
बड़े बड़े मॉल में हजारों के बिल को मुस्करा कर भर के जब आप रिक्शे से घर लौट रहे होते हैं तो आपकी आज़ादी उस एक्स्ट्रा 5 रूपए में बंद हो जाती है जो आपने 15 मिनट की झड़प के बाद उस रिक्शेवाले से बचाए हैं.

हमारी देश की आज़ादी इन 67 सालों में बस ऊपर के कुछ वर्गों तक ही पहुच सकी है. और अब ये हमारे हाथ में है की हम बची हूँ जनसँख्या के लिए "साइमन" बन कर आते हैं या "भगत सिंह".ये हमारे ऊपर है की हम अपनी आज़ादी को समाज को ऊपर लाने में इस्तेमाल करते हैं या सिर्फ खुद को. आज़ादी अपना अर्थ तब सही तरीके से लेगी जब "छोटू" एक अच्छी चाय की जगह एक अच्छा समाज बना कर आपको देगा. जब आपके घर की खराब रोटी का किसी को इंतज़ार नहीं होगा. जब आप किसी रिक्शे वाले को रूपए देते हुए मुस्कुराएँगे. जब आपको इंडिपेंडेंट महसूस करने के लिए  किसी इंडिपेंडेंस डे की ज़रुरत नहीं होगी.



लेकिन एक मिनट ..क्या मैंने ये पहले बताया की ये पोस्ट सिर्फ मर्दों के लिए है. ये जो सारे आज़ादी पर लेक्चर है वो सिर्फ मर्दों पर लागू होते है (भले ही थोड़े बहुत). इसका एक प्रतिशत भी हमारी देश की औरतों पर लागू नहीं होता. वो ना पहले आज़ाद थीं, ना आज हैं और ना हम उन्हें कल भी होने देंगे. आप बेझिझक अपनी नयी गाडी में झंडा लगा कर सामने जाती लड़की को छेड़ सकते हैं. ओह..गाडी नहीं है आपके पास...कोई बात नहीं किसी लोकल बस और मेट्रो तो हैं ही. और घर पर अगर आप अपनी बीवी पर हाथ उठा रहे हों तो थोडा बंद कमरे में मारिएगा, सुना है आजकल  कुछ लोगों के नैतिक मूल्यों को ठेस पहुच जाता है और वो सोशल नेटवर्क पर भूख हड़ताल कर देते हैं (ब्वाहहहहाहा ..मज़ाक कर रहा हूँ , बेझिझक और बेपरवाह हाथ उठाइए ..ये तो अफ्रीका की पेट भी like के सहारे भरते हैं).और अगर कुछ ऊँचा नीचा हो भी जाता है तो बचपन में पिताजी ने बाहर मज़बूत टहनियों वाले पेड़ तो लगवा ही रखे है..इस्तेमाल कर लेंगे..और कई राजनेता तो हमारे साथ हैं ही जो इसे "बच्चों की गलतियाँ" साबित कर के बचा ही लेंगे. कोई दिक्कत नहीं है भाई अपन को... एकदम बिंदास एक अच्छे समाज के निर्माण में अपना योगदान दीजिये...अरे लड़कियां तुम कहाँ चल दी ..अन्दर जा कर खाना बनाने में मन लगाओ...समाज सुधारना मर्दों का काम है..

मैं भी सोच रहा हूँ की एक सस्ता सा...मेरा मतलब है अच्छा सा तिरंगा ले आऊ.


स्वतंत्रा दिवस मुबारक हो.



Friday, 18 July 2014

सवाली ख़ुशी

स्टडी के हिसाब से एक चार साल का बच्चा दिन में करीब 400 बार हँसता है जबकि एक वयस्क (अगर आप ये पढ़ रहें हैं तो ज़नाब आप कम से कम वयस्क तो हैं ही ) करीब 15 बार . जी हाँ इसमें उस तरीका का भी हँसना है जिसे आप पागलों की तरह हँसना कहते हैं . आपके स्ट्रेस , आपका काम, आपकी priority, आप कारण कोई भी दें लेकिन ये सच है की आप हँसना भूल गए हैं.
पहले तो आप इस बात को मानते नहीं हैं. और जब मैं (पता नहीं क्यूँ ) आप पर थोडा जोर डालता हूँ तो कई बार आप किसी का नाम लेलेते हैं, किसी इंसान का, किसी चीज़ का, किसी घटना का, या कई बार "तुम नहीं समझोगे यार !!!" जैसी बुद्धिजीवियों वाले जवाब दे देते हैं.

मैंने बहोत लोगों से इस बारे में गुफ्तगुं की और मुझे बहुत से और बहुत ही अलग से (यकीन मानिए, कुछ तो यकीन ना करने की इन्तहां तक अजीब थे) कारण सुनने को मिले.

जो मैंने पाया वो ये था की हर किसी को किसी न किसी चीज़ या इंसान या कंडीशन से दिक्कत है. और वो उसके ना खुश होने का कारण है. लेकिन एक चीज़, एक कारण  जो सभी में एक जैसे थे,जिसे किसी ने नहीं कहा की ये उनके खुश ना होने का कारण है..और वो थे वो खुद.

एक इन्सान ने ये नहीं कहा की वो खुश नहीं हैं क्यूंकि वो खुद नहीं चाहता. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि वो उस जीव या निर्जीव से कुछ ज्यादा ही जुड़ गया है और आगे नहीं बढ़ रहा. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि उसने अपनी ख़ुशी खुद की जगह किसी तोते में बंद कर रखी है. वो तोता जो ना तो अब आपका है और ना ही आपके लिए.


लेकिन आप ये मानना नहीं चाहते, क्यूंकि आपक्को तो बस उस तोते से लगाव था. वो लगाव जो अब जिद्द बन गई है आपकी. जिद्द उसे वापस पाने की. और उस सवाल की , की कैसे आपका प्यारा तोता आपका नहीं है. आप अपनी जिद्द में इतने जकड जाते हैं की आपको इस सवाल के जवाब से अब मतलब नहीं होता..आपको बस ये सवाल पूछना होता है..ये सवाल जिसे सुनने वाला कोई नहीं होता और आप झुंझला जाते हैं और खुश होना आपको बेईमानी सी लगने लगती है. आपकी स्थिति एक गाडी के पीछे भागते कुत्ते की तरह हो जाती है (घबराइए नहीं मैं आपको कुत्ता नहीं कह रहा ) जो आती जाती हर गाडी के पीछे भागता तो है, लेकिन उसके रुकने के बाद समझ नहीं पाता की क्या करें. और वो ये बार बार करता है.

आप तबतक नहीं खुश रह रकते जबतक आप खुद को ये नहीं मानने पर मजबूर कर देते (मजबूर इसलिए क्यूंकि अबतक आप बात के भूत से लात के भूत में बदल चुके हैं ) की आप के पास ही आपकी ख़ुशी का राज़ है.. राज़ जो बहुत ही आसान है. आपको अपनी ख़ुशी किसी तोते के अन्दर नहीं रखनी है. उसे आपको खुद में संजोये रखना है. आपको ये समझना होगा की उस गाड़ी की रफ़्तार आपकी ख़ुशी पर नहीं टिकी है. फिर आप उस गाडी के पीछे (जी हाँ उस कुत्ते की तरह )क्यूँ भाग रहे हैं.

फिर कहीं से सवाल उठता है हम उस "ख़ुशी" (हाँ भाई ..जिसे हम अभी भी ख़ुशी मान रहे हैं) के पीछे जाना छोड़ भी देते हैं तो ससुरी इस बेरहम दुनियां में अगली ख़ुशी कहाँ से ढूंढ कर लाएं... इसका जवाब किसी बड़ी सी चीज़ में नहीं छुपा है. इसका जवाब तो उन सभी छोटी चीज़ों में है जिसपर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.

हमारी ख़ुशी उस बेपरवाह ठहाकों में है जो अपने दोस्तों के साथ बेपरवाह लगाया करते थे.
हमारी ख़ुशी उन दो छिछोरी लाइनों में है जो किसी डायरी में दबी पड़ी है.
हमारी ख़ुशी उन सफ़ेद पन्नों के बेढंगे रंगों में है जो बक्से के एक कोने में बंद है.
हमारी ख़ुशी उन पुराने सिक्कों में है जो बचपन में इकठे करते हुए नए नोटों में सिमट गई है.
हमारी ख़ुशी उन घर की बनी मठरियों में है जो पिज़्ज़ा के खाली डब्बों के साथ घर के कोने में भरी पड़ी है.
हमारी खुशी उस खुली  छत पर है जिसे हम कमरों की आज़ादी में बंद कर आये हैं.
हमारी ख़ुशी उस चुक्कड़ की चाय में है जो hygiene के नाम पर प्लास्टिक के कपों में पड़ी है.
हमारी ख़ुशी हममें है जिसे हम दूसरों की आँखों में खोजते आए हैं.
हमारी ख़ुशी उन छोटी छोटी आदतों में है जिन्हें अपनी इच्छाओं के आड़ में बदल डाली है.
हमारी ख़ुशी इस सवाल में नहीं है की हम खुश क्यूँ नहीं हैं बल्कि इसके जवाब में है की हम पहले जितने खुश क्यूँ नहीं हैं...हमारी ख़ुशी किन्ही जवाबों में नहीं ..बल्कि उन सवालों में है जो हम खुद से करना नहीं चाहते...हमारी ख़ुशी हममे है...
 (आप तो थोड़े भावुक हो गए )

हाँ तो आप कुछ सवाल कर रहे थे!!! नहीं ?? कोई नहीं ?? अच्छा...अच्छा... वक़्त चाहिए आपको... जी हाँ ..लीजिये  लीजिये...वक़्त तो आपही का है.


Friday, 4 July 2014

केसरी side of wall

वैधानिक चेतावनी ~ राजनीतिक सासुमाएं कृपया इस पोस्ट को बहु की बनाई चाय समझ कर या तो पी जाएँ या टेबल पर ही रहने दें। पोस्ट को संसद ना बनायें।
केजरीवाल। अरविन्द केजरीवाल। ओह..मैं इसे बांड, जेम्स बांड जैसा sound करवाना चाह रहा था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।वैसे ऐसा तो होना ही था। इसके दो कारण हैं..
पहला - जेम्स बांड एक काल्पनिक character है।
दूसरा - केजरीवाल को diabetes है।

अगर आपको ये लगता है की ये इंसान एक looser ( looser शब्द कुछ ज्यादा ही आम होगया है हम teenagers में ) है तो जरा खुद को इससे थोडा compare कर लीजिये। और अगर आप इसके थोड़े भी पास आजाते हैं तो ... आप शायद सही कह रहे हैं.
जब आप अपने 20s में friendzone जैसे शब्दों के उधेड़बून में लगे थे आपसे करीब 20-25 साल पहले इस इंसान ने सामजिक नियमों के उलट लव मैरेज जैसा जघन्य अपराध करने की गुस्ताखी की थी। इतना ही नहीं इसने अपने सामाजिक जीवन को व्यवहारिक और पारिवारिक जीवन पर पर असर भी नहीं डालने दिया ( जी नहीं मैंने उल्टा नहीं लिखा है) और इसका एक बड़ा प्रमाण आप इन्टरनेट पर फैले इसकी बेटी के बोर्ड्स और IIT के memes से आसानी से पा सकते हैं। इतना ही नहीं केजरीवाल और उनका परिवार उस उदाहरण का भी हिस्सा हैं जिसमे घर की औरत घर की जिम्मेदारियां लेती है ताकि मर्द अपने मन का काम ( भले ही वो समाज सेवा क्यूँ ना हो ) बिना किसी economic दबाव के कर सके। डरिये मत ... आपसे ऐसा करने को नहीं कह रहा हूँ क्यूंकि आपको भी पता है की आप  hypocrite हैं। और इसके बावजूद आप उनकी मनः स्थिति की गंभीरता , शालीनता और ठहराओ को उनके इंटरव्यूज में आसानी से परख सकते हैं।
ये तो कुछ ऐसी बातें थी जिनपर हमारा जवाब होता है- "अरे मौका हमें भी मिलेगा तो हम भी दिखा देंगे बड़े आये कटाक्ष करने ". लेकिन जनाब कुछ ऐसी भी खूबियाँ मैं गिना सकता हूँ जिससे शायद आपको अपने जवाब में थोड़ी तब्दीली ला सकें ( जवाब तो फिर भी आपके पास कोई ना कोई होगा ही)..
1. IIT में 1000 से कम रैंक। 
2. IAS में सफलता पाकर IRS के अंतर्गत joint commissioner इनकम टैक्स।
3. अपना NGO शुरू करके उसी डिपार्टमेंट में लोगो को घूस लेने से रोकना।
4. RTI जैसे नियमों को जनता के बीच लाकर सिस्टम में पारदर्शिता लाना और इस काम में अपने योगदान करनेके लिए Magsaysay जैसे पुरस्कारों से नवाजा जाना।
5. लोकपाल बिल को लागू करवाने के लिए सतही जोर लगाना जब की आपको पता है की पिछले चार दसक से येही कोशिश की जा रही है।
6. दिल्ली का cm बनना।
7. दो महीनों की तयारी में पंजाब जैसी जगह से चार MP's सामने लाना जिनका कोई राजनितिक इतिहास ना हो।

एक मिनट। शायद नीचे के दो points में मैं थोडा पोलिटिकल कमेन्ट कर बैठा।
8. ये पॉइंट सबसे ज़रूरी है । केजरीवाल नें हममे, जिसे हम youth कहते हैं में, राजनीती के प्रति थोड़ी उम्मीद जगाई। वो उम्मीद जो हमने दशकों पहले छोड़ दी थी। कल तक जो क्षेत्र सिर्फ गुंडों और दबंग लोगों का माना जारहा था आज आम जनता को अपनी बागडोर देने के लिए तैयार है। और आप MTV से थोडा वक़्त निकाल कर अगर न्यूज़ चैनल देखते हैं तो जनाब इसका थोडा तो श्रेय इस इंसान को जाता ही है।
ये सच है की उसने गलतियाँ की हैं जो उसे नहीं करनी चाहिए थी। ये भी सच है की उसने कुछ फैसले किये जो उसे नहीं करने चाहिए थे। ये भी सच है की उसने कई टारगेट्स बनाये जिसे छूने में वो असफल रहा। लेकिन उसके टारगेट्स steep थे। steep जिसे छू पाना आसान नहीं था। और ऐसे टारगेट्स एक achiever ही बना सकता था। इस इंसान की सफलताओं की लिस्ट असफलताओं से लम्बी है और पिक्चर अभी (बहुत) बाकी है मेरे दोस्त।
अगली बार जब आप लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए या BARISTA की कॉफ़ी का लुत्फ़ उठाते हुए भारत की राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण पर अपने विचार प्रकट कर रहें हों तो उसे राजनीति तक ही केन्द्रित रखने की कोशिश करियेगा और अगर आपके पास फैक्ट्स कम पड़ गए हैं और आप पर्सनल होना भी चाहते हैं, तो एक बार ये पेज खोल लीजिएगा। शायद थोड़ी मदद मिले।
ps. अम्मा यार ...satire कौन ले गया रे इस पोस्ट का।

Wednesday, 2 July 2014

चटपटी लिस्ट

"भाईसाब!! सुना है DU की पहली cutoff लिस्ट आगई है? कितनी दर्दनाक थी इस बार की तबाही"
" नाही पूछें तो बेहतर है।"
"ऐसा क्या आगया है साहब"
"जितना टूथपेस्ट वाले अपने ऐड में कीटाणु मिटाने का वादा करते हैं उतनी तो ये अपनी cutoff निकालते हैं, आदमी बोले भी क्या"

इन परीक्षाओं का evolution हमारे evolution से थोडा ज्यादा ही हुआ है। पहले जो बाप अपने बड़े बेटे को 85% के लिए प्रोत्साहित करता था आज वो confuse है की छोटे बेटे को प्रोत्साहित करते हुए 95% तक जाए या 100% के लिए टार्चर करे।
जबतक परीक्षाए absolute परिणाम दिया करती थीं खुशियाँ थोड़ी absolute थीं। और जबसे परिणाम relative हुए.. खुशियाँ भी relative हो गईं हैं।( वैसे हों भी क्यूँ ना.. ये "relatives" जो बीच में आगये...just kidding )। विश्वास कीजिये पांच साल पहले बारहवीं पास किया था लेकिन गाली आज भी खाता हूँ जब दूसरों के रिजल्ट्स आते हैं की बेटा बड़े अच्छे वक़्त में पास कर लिया वरना आज के वक़्त में उतने नंबर में तो पड़ोस के झुमरीतलैया वाले कॉलेज में एडमिशन कराना पड़ता। बात सही भी है उनकी।
इस एजुकेशन सिस्टम को देखकर लगता है की इसे रिश्तेदारों के किसी ख़ुफ़िया तंत्र ने रात के अँधेरे में मिलकर बनाया है। लेकिन विश्वास मानिए हमारी बेसिक प्रॉब्लम एजुकेशन सिस्टम नहीं है बल्कि एक ही समय में मौजूद अलग अलग एजुकेशन सिस्टम है जो एक दुसरे से synchronise करने से ऐसे मुह फिरा रहे हैं जैसे एक घर में दो बहुएं एक दुसरे को देखकर मुह फिरा लेती हैं।
एक सिस्टम को ऐसा बनाया गया है की वो पिछड़े वर्ग के लोगों को आगे ला सकें तो दुसरे को इस तरह से रूप दिया गया है की आगे बढ़ते हुए छात्रों को रास्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पेश किया जा सके। अगर ये दोनों अपने मूलभूत उद्देश्यों को पूरा करने में सफल हो भी जाते हैं ( बस मानने को कह रहा हूँ भड़किये मत ) तो भी ये समान बुद्धिमता और योग्य छात्रों को एक ही platform पर लाकर नहीं खड़ा करते। और इस तरह हमारी एजुकेशन सिस्टम की असमता बरकरार रह जाती है।
वैसे inequality से याद आया, आपको कबसे इस असमता (या inequality) से दिक्कत होने लगी। आपको तो आदत है ना। ओह.. आपको तो याद ही नहीं। मैं याद दिलाता हूँ।
पिछली बार आपने उस रिक्शे वाले से, उस सब्जी वाले से, उस ऑटो वाले से, उस धोबी से, उस अखबार वाले से, उस फेरी वाले से किये गए अपने व्यवहार और उस बैंक मेनेजर से, उस डॉक्टर से, उस फ्लाइट attendent से, उस वकील से किये गए अपने व्यवहार पर जरा गौर करेंगे तो आपको खुद पता लग जाएगा की इस सिस्टम के आप उतने ही बड़े हिस्से हैं जितना आप दूसरों को मानते हैं। लेकिन ये बात ना आपको justify करता है और ना ही एजुकेशन सिस्टम को।

तो अगली बार अगर आपको किसी inequality पर गुस्सा आये तो जरा मार्केट में किसी ठेले वाले से दो किलो सब्जियां ले आइयेगा। और हां रिक्शे से जाना मत भूलियेगा।
:)

"भई ज़रा देखना तो... ये कल्मूहे दूसरी लिस्ट कब निकल रहे हैं।"

Tuesday, 1 July 2014

Some pearls..●●●

What life means is not something you stumble across, like the answer to a riddle or the prize in a treasure hunt. Meaning of life is something you build into your life out of your own past, out of your affections and loyalities, out of the experience of mankind as it is passed on to you, out of your own talent and understanding, out of the things you believe in, out of the values for which you are willing to sacrifice something.
So, ingredients are...
You are the only one who can put them together into that unique pattern that will be your life. Let it be a life that has dignity and meaning for you. If it does, then the particular balance of success or failure counts for little.
ps. Posted by WINGWOMAN :)

Monday, 30 June 2014

मौनsoon

मानसून आ रहा है। शायद आपतक आ भी गया होगा। मानसून मुझे तो बड़ा पसंद है , गरमा गरम पकोड़े के साथ कॉफ़ी ( भाई मुझे कॉफ़ी ही पसंद है तो चाय कैसे लिख दूँ :) और ठंडे ठंड पानी में छत पर नहाना। हाँ बुरा बुरा भी लगता है कई बार जब किसी काम से आप बन ठन कर बाहर जाने वाले होते हो और नालायक बारिश की वजह से निकल नहीं पाते।
कुछ वक़्त बीतता है और आपको ये समझ आता है की यार ये  जो मानसून पर आपका प्यार है ये बड़ा ही मूडी है, जब मन होता है तो पसंद आ जाता है और नहीं तो "dude ! I hate monsoon".
लेकिन एक बात तो पक्की है या तो आप मानसून को पसंद करते हैं या नापसंद। कोई बीच की फीलिंग नहीं होती। लेकिन ज़रा रुकिए.. अगर आप भी मेरी तरह ऐसा ही सोचते हैं तो मै आपको एक ऐसी जगह ले जाना चाहता हूँ जहाँ लोगों का 'मानसून प्यार' मानसून पर ही नहीं, सरकार के "ग्रामीण सड़क निर्माण योजना" पर भी depend करता है।

हाँ मुझे पता है। आपके मुंह का स्वाद अचानक से कड़वा हो गया होगा। पहला तो "ग्रामीण" पढ़ कर और दूसरा सरकारी योजना का नाम सुन कर। घबराइए मत। मैं किसी fact पर आपको उपदेश नहीं देने वाला। बस एक छोटी सी और अजीब सी स्थिति से आपको रूबरू करवाना चाहता हूँ।
बिहार। जी हाँ बिहार का एक बड़ा हिस्सा है जो मानसून की वजह से हर साल बाढ़ की चपेट में आ जाता है। लेकिन उनके चेहरे अभी भी कोई इशारा नहीं देते आपको। शायद इसलिए क्यूंकि उन्हें इसकी आदत है। या शायद इसलिए क्यूंकि उन्हें इसकी उम्मीद थी। शायद। बाढ़ आती है और कुछ दिनों में सब कुछ तबाह कर के चली जाती है।आप जो देखते हैं उससे आप थोड़ी सोच में पद जाते हैं। आप देखते हैं की पानी के कम होते ही लोग अपने घरो को दुरुस्त करने की बजाए सड़कों की तरफ जाते हैं और कुछ घरेलु औजारों से बचे हुए सड़क को पूरी तरह बिगाड़ देते हैं। अरे ये क्या बात हुई...उन्हें अपने घरों के उजड़ने से उतना गम क्यूँ नहीं है जितना की सामने से जाती सड़क के बिगड़ने से राहत ? ऐसा क्यूँ?
इसका जवाब आपको तब मिलता है जब आप इंसान की मूलभूत ज़रूरतों की महत्ता समझने की कोशिश करते हैं। बात ऐसी है की  बाढ़ ने तो उनकी जमा पूँजी का निपटारा तो कर ही दिया, और अब उनके पास जिंदगी की सबसे मूलभूत ज़रूरतों (basic needs) को पूरा करने का अगर कोई निवारण निकालता है तो वो होता है ये सड़क, जिसे बने रहने की जिम्मेदारी सरकार की ये "ग्रामीण सड़क निर्माण योजना" करती है। ये आस पास के मजदूरों को सड़क बनाने में इस्तेमाल करती है और इसके एवज में उन्हें दो वक़्त के बराबर के पैसे मिल जाते हैं। 
ये वो लोग है जिनके पास इस बात का जवाब नहीं होता की - ' मालिक मानसून आ रहा है, कैसा लग रहा है आपको '।

बुरा मत महसूस करिए। मेरा उद्देश्य कत्तई ये नहीं था। लेकिन अगर फिर भी आपको बुरा लग रहा है तो .. जनाब. आप अपनी पीठ थपथपा सकते हैं।क्यूंकि ये ही वो पहली सोच है जो बदलाव ला सकती है। बदलाव समाज में, आपमें। क्यूंकि ये वो सोच है जो आपके शिकायत करने की आदत को कम कर सकती है। हर उस बात की शिकायत जो आपके मन मुताबिक़ नहीं है। क्यूंकि हम उन तमाम लोगों से बहुत अच्छी हालत में हैं जो अफ्रीका, युगांडा जैसी जगहों पर नहीं बल्कि हमारे देश के ही किसी कोने में हैं।
तो बस अगली बार जब बारिश हो तो जरा मुस्कुराइए,  उस कार वाले को गालियाँ मत दीजिये जिसने आपके कपडे ख़राब कर दिए ( अच्छा चलिए थोडा दे लीजिये :) और उस ठेले वाले पर भी अपना गुस्सा मत निकली जो बरसात में आपकी गाडी के सामने आकर खड़ा हो गया है और आपकी आराम सफ़र में रोड़ा बन रहा है और हाँ सबसे ज़रूरी बात अपनी जिंदगी को शुक्रिया कहना मत भूलियेगा जिसने आपको चुना। और जब भी आपको अपने "busy" schedule से मौका मिले, मानसून की वजह से बेघर हुए लोगों के लिए अगर आप कुछ कर सकते हों तो ज़रूर करिए। विश्वास मानिए आपको एक नई तरह की ख़ुशी का एहसास होगा। :)
उफ़... बारिश शुरू हो गई और मैंने अभी तक बाहर से कपडे भी नहीं उतारे.. आप समझ ही रहे होंगे ,मेरी दिक्कतें ही अलग है...फिर मिलता हूँ।
:)
Happy monsoon..

Sunday, 29 June 2014

एक बूँद थप्पड़

सबसे पहले तो एक काम करिए. एक थप्पड़ जडिये खुद को. नहीं नहीं सोचिये मत. आगे बढिए. एक थप्पड़. आपका आने वाला कल आपका आभारी होगा.
मैं आपको “आपकी जिंदगी दूसरों की जिंदगी से बेहतर है” पर लेक्चर नहीं देने वाला. क्यूँ !!! क्यूंकि ऐसा है नहीं. आप जिस जगह पर हैं, आप माने या ना मानें, वे आपके चुनाव ही हैं. चुनाव जो आपने अपनी जिंदगी के हर पड़ाव पर लिए. ये आप हैं जिन्होंने फैसले तो कर लिए लेकिन उनपर अमल करने पर आपने अपना सब कुछ दांव पर नहीं लगाया. आपको ना ही पाने की गहराई का एहसास है और न ही खोने का डर. अगर किसी बात का एह्साह है आपको तो इस बात का की कहीं आप उसे खो ना दें. लेकिन आप इसका कुछ करते नहीं. मैं बताता हूँ क्यूँ ...
क्यूंकि आप डरते हैं. डरते हैं अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलने से. डरते हैं हारने से. और डरते हैं बदलाव से. बदलाव जो आपको आगे भी ले जा सकता है और पीछे भी. लेकिन आप ये रिस्क नहीं लेना चाहते. और आप रिस्क लें भी क्यूँ आप जिस जगह हैं वो भले ही जैसी भी हो आपको समाज में इज्ज़त तो देता है  (ब्वाहहहाहहाहा...),और आपके वो रिश्तेदार भी खुश रहते हैं जिनको आपकी बारहवी की रिजल्ट से लेकर आपकी शौक तक में दखल देना आपको बेहद पसंद था. आप उन्हें तो नाराज़ नहीं कर सकते ना.

जैसा मैंने पहले कहा था. एक थप्पड़. प्लीज.
एक थप्पड़ हर बार जब आप खुद को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई ना कोई बहाना लेकर आ जाते हैं. क्यूंकि शायद एक दिन ये एक थप्पड़ कोई चमत्कार कर जाए और आपको ये समझ में आए की आप जो कर रहे हैं और आप जो करना चाहते हैं उसके बीच अगर कोई आ रहा है तो वो, सरप्राइज, आप ही हैं.


यहाँ पर ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने असम (जी हाँ इसका मतलब ~non supporting / uneven ~ होता है मेरे अंग्रेजों) परिस्थितियों में खुद को साबित किया है. आप जब खुद का इस्तेमाल अपने उद्देश्य को पाने में करने का सोचते हैं तो आश्चर्य चकित करने वाले परिणाम सामने आते हैं. आपके पास कोई और option नहीं होता उस रस्ते पर चलने के सिवा. और उस रास्ते पर चलते हुए आपको एहसास होता है की तब आपको ये एकसास होता है की ये रास्ता भले ही आसान ना हो लेकिन दिन भर इस रास्ते पर चलने के बाद भी अगर आप के हाथों कुछ नहीं आता तो आप वापस नहीं लौटते हैं, आप वहीँ किसी पेड़ के नीचे इस उम्मीद और उत्साह के साथ लेट जाते हैं की कल आप आज से जल्दी जागेंगे और आज से थोडा ही सही लेकिन ज्यादा मेहनत करेंगे. और ये सफ़र धीरे धीरे आपको आपकी मंजिल के नज़दीक ले जाता है. 
इसलिए थप्पड़ मारिये. हर बार. खुद को. और थोडा सा हर उस इंसान को जिसने आपको घर जाने के लिए कहा.

अगली बार जब हम मिले तब या तो आप खुद के बनाये रास्तों पर चल रहे हों या आपके गाल लाल हों.
:)
So Good luck.
ps. अपने पहले थप्पड़ के बारे में ज़रूर बताएं.




Wednesday, 25 June 2014

||| दुखी हुँ अचेत नहीं... |||

जाते-जाते एक ऐहसान करते जा,
अपने सारे दर्द मेरे हिस्से भरते जा,
और कभी मेरी ख्वाइश का ज़िक्र ना करना,
अपनी खुशी में कभी मेरी फ़िक्र ना करना...

बहोत फ़ासले तय किये इस मुकाम पे आने को,
सहा है दर्द बहोत यहाँ सुकून न पाने को,
मौत की सेज़ भी सजी तो मौत लौटती बोली,
तू वक़्त ले थोड़ा और अपना दर्द बढ़ाने को...

दुःख और दर्द में अंतर आसान और इतना है,
दुःख में सिर्फ हार और दर्द में ही जितना है,
और दुःख में आते हैं विचार तो सच्चे हैं न,
क्युकि सफेदी मुश्किल और दाग अच्छे हैं न...

ये हुई दुःख-दर्द की घिसी-पिट्टी पुरानी बात,
अब है बारी करने की अर्थ की सायानी बात,
किसी भी दशा में हो बस खुशी बांटते रहो,
ना कर सको ये तो सिर्फ दुःख ही छांटते चलो...

और तेरे होने की खुशी भी संभाल ही थी,
तो तेरे जाने का गम उससे बड़ा तो नहीं,
हा मैं दुखी हूँ पर अचेत ना ही मक्कार यहाँ,
अधूरा हुँ और ना हो सकूंगा कभी साकार यहाँ...

Monday, 23 June 2014

||| जिद्दी हुँ पर कपटी नहीं... |||

असली सूरत दिखाऊ तो जिद्दी कहें सब, 
तो क्या सबकी खुशी को ढोंगी हो जाऊ अब, 
चेहरा अनेक देख के सोचता हुँ मैं भी कभी,
किसी ना किसी मोड़ क्यों टूट जाते हैं सभी...


इसी कश्मकश मे बडता चला गया हुँ मै,
अर्थ-खोज़ मे उडता चला गया हुँ मै,
नहीं सह सकता चाहे समझो कसूरवार जितना,
अपनी नज़रो मे उठा रहू क्या काफी है इत
ना...

जिद है मुझे और ख्वाईश भी है लडने की,
उम्मीद से भी ज़्यादा लत है झगडने की,
इस राह मे आए है ऐसे मुकाम कई मरतबा,
बन गया अटूट हिस्सा जिनका कोई न अर्थ था...


नहीं देख सकता अब ये नकली बनावटी लोग,
करतब करे अनेक पर मकसद सबका बस भोग,
बहोत हुआ अब बंद करो ये ढोंग स्वेत कृत्य का,
नादान नहीं सच्चे हैं वो जो टाल जाए ये छल ह्रदय का...

Monday, 16 June 2014

||| आधार |||

दिल टूटने का लिखने से क्या सम्बन्ध है, 
ठोष हृदए को विचार आने में क्या कोई प्रतिबंध है, 
जीवंत हुँ तो रखता हुँ अपना मंतव्य हर कहीं, 
इंसान बनने की राह पे बात करता हुँ जो है सही...

दिल लगाने पे भी अक्सर होती है बहस यहाँ, 
बातें हैं बेबाक परन्तु नियत तो है सहज कहाँ, 
देखती हैं ये आँखे और सुनती है किस्सा-ए-प्रज्ञा, 
जरुरत नहीं इसे दिल, ना ही किसी टूट की आज्ञा...

अगले छंद में करता हुँ बयान अपने दर्दनाक लिखने का, 
समझो तो तुम भी प्रत्यन करना अपने ना बिकने का...

अपने समाज की संरचना बड़ी कठोर और कुछ यूँ, 
पीकर वाहन चलाना मना तो बार में पार्किंग है क्यों, 
बलात्कार के मामले हर दिन मौसम के हाल के माफिक, 
इसको रोकने का उपाय करो इसकी चर्चा करते हो क्यों ||

Sunday, 15 June 2014

Saturday, 14 June 2014

||| प्रतिवाद |||

कभी पीता नहीं हुँ,
होश में फिर भी रहता नहीं मैं,

सपनो में खोया रहूँ हमेशा,
पर सोता भी कहाँ हुँ मैं,

सामने दिखती है मंज़िल धुंदली,
रुका हुआ हुँ पर चलता नहीं हुँ मैं,

आशाएं लिए लाखों इस जहाँ में,
मगर पल बचे ही नहीं यहाँ मेरे,

लोभ में प्यार के फिरता हुँ,
ऐतबार है नहीं रिश्तों पे मगर मुझे,

बेमोल सा फिरता हुँ हर कहीं,
हर लम्हा बिकता हुँ इसी शहर में मैं,

झुकना सीखा ही नहीं किसी मोड़ पे,
पर सर कटाने को डरता भी हुँ मैं,

जुबान पे एक ताला सा है,
पर चुप रहता नहीं हुँ मैं ||

Saturday, 18 January 2014

Gud-marning-दीदी

13. ये गिनती थी उन नर्सेज की जो उन 23 ICU मरीजों के बीच थीं. ये नंबर्स सुनने में जितने अजीब और बेढंगे थे उनसे जुड़ा मेरा experience उतना ही मजबूर और दिलचस्प था

ये हॉस्पिटल है. और यहाँ सभी परेशान, दुखी, tensed और exhausted हैं. जी हाँ .. एकदम वैसे ही जैसे हम उम्मीद करते हैंआप जागें हों या सोने की जुर्रत ही क्यूँ न कर रहे हों आप उस सन्नाटे से डर जाते हैं जिसकी खोज आपको सुबह या कई दिनों से थी. आप समझ नहीं रहे होते हैं की आप चाह क्या रहे हैं.

पहले दिन काफी भागमभाग और उतार चढ़ाव के व्यवहार के बाद आपका मन थोडा शांत होता है. आप थक चुके होते हैं, शरीर से और मन से भी. अब आप अपने चारो तरफ देखते हैं और पाते हैं की आप पर ही सभी की नज़र टिकी है. हर तरह की बेजान नज़रें.. शायद इतनी तरह की बेबसी जिसे खत्म करने के लिए शायद हमारे पास जड़ी बूटियों की कमी पड़ जाएं. ये ऐसी जगह जान पड़ती है जहाँ आपकी दिक्कतें सबसे कम जान पड़ती हैं... लेकिन इस समय आप अपनी परेशानी को दूसरों से कम आंकने की स्थिति में नहीं हैं...आपको थोडा असहज सा लगता है, लेकिन आपकी गाडी में इतनी जगह नहीं बची हुई है की आप उस असहजता के साथ सफ़र कर सकें. इससे बचने के लिए आप आँखें बंद करते हैं, इससे आपको काम भर का 'भ्रम' मिल जाता है की कोई आपको देख नहीं रहा है.

अरे ... ये हंसने की आवाज़ कहाँ से आपके कानों में पड़ी... वो भी इतनी तेज और बेबाक हंसी.. कौन है ये insensitive इंसान, जिसे इतनी भी तमीज नहीं की एक हॉस्पिटल में इंसान को कैसा बरताव करना चाहिए.. एक मिनट.. कहीं ऐसा तो नहीं की वो आपका मज़ाक बना रहा हो... हो भी सकता है, इंसान में इंसान की कमी तो आजकल होती ही जा रही है.

आप माथे पर एक सिकन लिए हडबडा कर उस प्लास्टिक की कुर्सी से उठते हैं और इधर उधर देखने लगते हैं. देखने लगते हैं की बस वो इंसान दिख जाए जिसने ऐसा किया और आप उससे इस 'जुर्रत' के लिए अपनी जबान गन्दी कर सकें.. आप इधर उधर थोड़ी देर देखते हैं लेकिन आपको वहां कुछ नर्स ( शायद कुछ से थोड़ी ज्यादा ) और आपके जैसे ही आँखें फाड़े कुछ लोग और भी दिखते हैं जो अपने साथ किसी अपने को लेकर यहाँ आये हुए हैं.

आपको ये समझने में ज्यादा वक़्त नहीं लगता की ये ठहाके किसी और की नहीं बल्कि उन नर्सेज की हैं जो आपने सामने ही झुण्ड बना खड़ी हैं. वो आपके सामने खड़ी हैं और एक दुसरे के कानों में धीरे बोलने की ना-के-बराबर कोशिश करते हुए उनके हाथ सर्कस के किसी कलाकार की तरह दवाइयां छांटने और सिरिंज को बांटने में लगे हैं.

वो ऐसा कैसे कर सकते हैं. जी नहीं !!! ये सवाल आपके सामने के करतब बाज के लिए नहीं है, ये सवाल तो उस शख्स के लिए है जो आप पर शायद हंस रहा है. उस हंसोड़ के लिए है जो भावनाविहीन मालूम होता है. आपको अब उस इंसान से थोड़ी झुंझलाहट होने लगी है जो आपके यहाँ आने पर सबसे पहले आगे बढ़ कर आया था और अपने ऊपर सारी जिम्मेदारियां लेकर इतनी शिद्दत के साथ लग गया था. और अब वही नामुराद ऐसे निरलज्यों की तरह ठहाके लगा रहा है.

आप अभी इसी उहापोह में ही थे की तभी वहां कहीं से एक लम्बे कद की औरत जो शक्ल से ही चीफ-वार्डन लग रही थी आ जाती है. उन्हें अन्दर आता देख सारी नुर्स एक साथ शांत हो गई... चलो उन्हें ये एहसास तो है की जो वो कर रही हैं वो सही नहीं है.. आप अन्दर से थोडा खुश होते हैं... अच्छा हुआ ये आ गई..अब या तो ये खुद उनकी ये हरकत देख लेगी या मैं खुद ही उनकी इस कारस्तानी के बारे में बता दूंगा.

लेकिन ये क्या !!! सभी उस चेइफ-वार्डन की तरह तेजी से बढ़ रही हैं..और इस बार तो उनकी आवाज के साथ साथ उनके चेहरों पर भी चमक है.. सभी ने उनका हाथ पकड़ा और लगभग एक ही वक़्त में सभी के मुंह से निकला "गूड-मार्निंग- दीदी". और उन्होंने भी सभी का मुस्कुरा कर अभिवादन किया..."गूड मोर्निंग बहनों".. हाँ..यही शब्द हैं उनके. और इस बार उनकी आवाज़ पूरे वार्ड में गूँज गई. गूंजती भी क्यूँ ना, उन्होंने सारे "गूड मोर्निंग बहनों" को अपने अन्दर से descending-order में जो निकाला था.

आप अबतक जितना annoyed महसूस कर रहे थे अब उतना ही अजीब भी महसूस करने लगे हैं. आखिरकार ये लोग अपने काम के वक़्त ही तो गप्पें हांक रही थीं. लेकिन फिर भी इनके अन्दर दूसरों को छोडिये अपने सीनियर का भी डर नहीं है. आप इस सवाल को मन में लिए अपनी कुर्सी के बगल से लगे बेड पर पड़े हुए उस इंसान पर पड़ती है...आपको जो दिखता है वो एक सुकून भरा सुखद-आश्चर्य होता है. जिस इंसान को आप आधे घंटे पहले एक निर्जीव स्थिति में वहां लाये थे उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी. एक नायब मुस्कान जो डॉक्टरों की की गई भविष्यवाणी से काफी पहले आ गई थी. एक मुस्कान जिसने आपके दिन भर के थकान को चुटकी में खत्म कर दिया था. लेकिन जरा ठेहेरिये ... उस मुस्कान का असली श्रेय किसे जाएगा... डॉक्टरों को ...अच्छी दवाइयों को या किन्ही और को .... किन्ही फूहड़ औरतों को जिनको शायद भगवन ने सबसे अच्छी हंसी से तो नहीं ही नवाजा है. 


शायद डॉक्टरों की भविष्यवाणी गलत इसलिए हो गई क्यूंकि उन्होंने दवाइयों की गिनती में कुछ ठहाकों की संख्या में कमी कर दी थी. ठहाकों की वो संख्या जो उन नर्सों को याद थीं और जिसे देने में उन्होंने कोई कंजूसी नहीं की. उस वक़्त शायद हमारे जैसे कई मरीजों को दवाइयों से ज्यादा माहौल की ज़रुरत थी, कुछ मुस्कराहट की ज़रुरत थी. वो मुस्कराहट  जिसकी यहाँ आपसे उम्मीद नहीं की जाती. इन ठहाकों के लिए ना तो इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है और  ना ही सैलरी. और इसके बावजूद उन्होंने अपने काम को पूरे शिद्दत से पूरा किया... आपने शायद फैसला करने में थोड़ी जल्दबाजी कर दी थी. लेकिन कोई बात नहीं ... अब आपकी बारी है... कुछ गंभीरता में कटौती करने की .... कुछ अनजाने चेहरों पर अनचाही मुस्कान बिखेरने की... कुछ बेपरवाह ठहाकों की... कुछ दफा judgmental ना होने की... कुछ दूसरों के काम को appreciate करने की...कुछ खुद के काम से दूसरों को ख़ुशी देने की ...  अब आपकी बारी है कुछ उमीदों पर खरा ना उतरने की... कोशिश कीजिये... इतना मुश्किल भी नहीं है.