Wing Up

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Monday 11 August 2014

गुंजाइश-ए-Independence



इस अगस्त इंडिया की नयी जनरेशन दो हिस्सों में बटी हुई है. एक जिनकी प्रोफाइल पर तिरंगा लगा हुआ है और दुसरे जो इस बात से चिढ़े हुए हैं की "भाई ये ढकोसला क्या है".लेकिन इन दोनों की सोच में कितनी भी असमानताएं क्यूँ ना हों एक चीज़ है जो इन्हें जोडती है. क्या है वो एक चीज़..?? बोलो बोलो ?? "यही की हम भारतीय है.".. जी हाँ यही जवाब मिलता है आपसे और हमसे ...क्यूंकि यही जवाब हमको और आपको बचपन से रटाया जाता है.. और जैसे 'mass' और 'volume' दिए जाने पर आप बिना सवाल सुने 'density' निकाल कर चीख उठते थे, आज आपको एह्सास होता है की आप कुछ ज्यादा नहीं बदले. आज भी आप रिएक्शन पर एक्शन से ज्यादा यकीन करते हैं. और जहाँ तक रहा मेरे सवाल(जो एक करोड़ के लिए पुछा जा रहा था ) के सही जवाब का, तो वो ये है की इन दोनों तरह की जनरेशन को जोडती है इन दोनों के विचारों का खोखलापन (और इस तरह बड़ी ही बेदर्द तरीके से आप एक करोड़ रुपये हार जाते हैं).

अब दूसरा सवाल उठता है की क्या हम सभी इस विचारहीनता के शिकार हैं (जी नहीं ये दो करोड़ का सवाल नहीं है...कृपया छिछोरापंथी ना करें ) ? इस तरह के सवालों का कोई लिखित जवाब या निष्कर्ष नहीं होता..इसका जवाब हमारे और आपके रोज़मर्या की जिंदगी से निकल कर आता है

आज हम बड़े ही शान से कहते हैं की हम आज़ाद हैं (अरे हाँ हाँ ... you random citizen जिसके DP पर तिरंगा नहीं है तुम भी आज़ाद हो )..लेकिन इस आज़ादी का मतलब क्या है और हमने इस आजादी के साथ क्या क्या अठखेलियाँ की हैं ये जानना उतना ही ज़रूरी है हमारे लिए. एक बात तो बहुत ही साफ़ है की हम आज़ादी के वक़्त में हुई कुर्बानियों को ना तो महसूस कर सकते हैं और ना ही उसकी गहराई को भांप सकते हैं.और मुझे आपको हमारे इतिहास में ले जाने का ही कोई इरादा भी नहीं है (हम महानुभाव.. वर्तमान तो संभाल नहीं पा रहें हैं...इतिहास तो..टनन्न्नन्न..संभालेंगे ). लेकिन आज की जो हमारी आज़ादी है वो हमें तोहफे में बिना किसी मेहनत की मिली है और इसे हम अपनी पुरानी गर्लफ्रेंड के दिए किसी तोहफे से ज्यादा संभाल कर नहीं रखते (oh yeah... here comes the trick).

15 तारीख को जिस आज़ादी को हम पूरी श्रधा से लहराते हुए चलते हैं उसी को 16 तारिख को जमीन से उठाने में हमारी कमर के साथ हमारी आज़ादी भी दम तोड़ देती है. अगर मैं आज आपको बता दूँ की इस बार इंडिपेंडेंस डे सन्डे को पड़ रहा है तो आपका मुंह उतर जाता है (अरे आप तो घबरा कर कैलेंडर देखने लग गए... बड़े कमज़ोर दिल के होगये हैं आप तो). आज विदेशी कंपनियां हमें इस "आज़ाद दिवस" के बदले बोनस देने की बात कहती हैं और हमें इस  ऑफर में कोई बुरे नहीं नज़र आती. .... "अरे ये क्या बात हुई... आप ज़बरदस्ती इंडिपेंडेंस डे के पीछे पड़ गए हैं...ऐसा तो हम अपने त्यौहार के वक़्त भी करते हैं, तब क्यूँ नहीं ये देशभक्ति जैसे सवाल उठाये आपने?? " ... ज़नाब हम भी यही कहना चाह रहे हैं..की सवाल तो हमारी आज़ादी का कभी था ही नहीं...सवाल था तो ये की उस आज़ादी के साथ हम न्याय कर रहे हैं की नहीं.

आज़ादी आपका अधिकार है. जन्मसिद्ध अधिकार
. लेकिन अपने अधिकारों के साथ उनसे जुड़े अपने कर्तव्यों को जानना और उनपर अमल करना भी उतना ही ज़रूरी है. (थोड़ी तबाही हिंदी हो गयी ना... )

आज जब हम रोड के किनारे झंडे खरीदते हुए कुछ चिल्लर उन नन्हे हाथों पर रखते हैं तो देशभक्ति की ये अंधी भावना हमें हमारी आजादी के भले ही करीब ले जाए लेकिन भारत के एक बड़े हिस्से को आज भी आज़ादी के मायनों से कोसो दूर रखती है.
आज जब हम अपने आजाद देश के किसी भी कोने में बेफिक्री से घुमते हुए थक कर पास वाले चाय की दूकान पर बैठते हैं और "छोटू एक कप चाय इधर देना" कहते हैं तो आपकी आज़ादी किसी मासूम की कोमल उँगलियों के बीच अटके कप की मोहताज हो जाती है.
हमारे यहाँ की शादियों में जब सैकड़ों की तादाद में खाने फेंके जाते हैं तो हमारी आज़ादी सड़क उस पार तीन दिन से भूखा लाचार सा खड़ा दिखता है.
बड़े बड़े मॉल में हजारों के बिल को मुस्करा कर भर के जब आप रिक्शे से घर लौट रहे होते हैं तो आपकी आज़ादी उस एक्स्ट्रा 5 रूपए में बंद हो जाती है जो आपने 15 मिनट की झड़प के बाद उस रिक्शेवाले से बचाए हैं.

हमारी देश की आज़ादी इन 67 सालों में बस ऊपर के कुछ वर्गों तक ही पहुच सकी है. और अब ये हमारे हाथ में है की हम बची हूँ जनसँख्या के लिए "साइमन" बन कर आते हैं या "भगत सिंह".ये हमारे ऊपर है की हम अपनी आज़ादी को समाज को ऊपर लाने में इस्तेमाल करते हैं या सिर्फ खुद को. आज़ादी अपना अर्थ तब सही तरीके से लेगी जब "छोटू" एक अच्छी चाय की जगह एक अच्छा समाज बना कर आपको देगा. जब आपके घर की खराब रोटी का किसी को इंतज़ार नहीं होगा. जब आप किसी रिक्शे वाले को रूपए देते हुए मुस्कुराएँगे. जब आपको इंडिपेंडेंट महसूस करने के लिए  किसी इंडिपेंडेंस डे की ज़रुरत नहीं होगी.



लेकिन एक मिनट ..क्या मैंने ये पहले बताया की ये पोस्ट सिर्फ मर्दों के लिए है. ये जो सारे आज़ादी पर लेक्चर है वो सिर्फ मर्दों पर लागू होते है (भले ही थोड़े बहुत). इसका एक प्रतिशत भी हमारी देश की औरतों पर लागू नहीं होता. वो ना पहले आज़ाद थीं, ना आज हैं और ना हम उन्हें कल भी होने देंगे. आप बेझिझक अपनी नयी गाडी में झंडा लगा कर सामने जाती लड़की को छेड़ सकते हैं. ओह..गाडी नहीं है आपके पास...कोई बात नहीं किसी लोकल बस और मेट्रो तो हैं ही. और घर पर अगर आप अपनी बीवी पर हाथ उठा रहे हों तो थोडा बंद कमरे में मारिएगा, सुना है आजकल  कुछ लोगों के नैतिक मूल्यों को ठेस पहुच जाता है और वो सोशल नेटवर्क पर भूख हड़ताल कर देते हैं (ब्वाहहहहाहा ..मज़ाक कर रहा हूँ , बेझिझक और बेपरवाह हाथ उठाइए ..ये तो अफ्रीका की पेट भी like के सहारे भरते हैं).और अगर कुछ ऊँचा नीचा हो भी जाता है तो बचपन में पिताजी ने बाहर मज़बूत टहनियों वाले पेड़ तो लगवा ही रखे है..इस्तेमाल कर लेंगे..और कई राजनेता तो हमारे साथ हैं ही जो इसे "बच्चों की गलतियाँ" साबित कर के बचा ही लेंगे. कोई दिक्कत नहीं है भाई अपन को... एकदम बिंदास एक अच्छे समाज के निर्माण में अपना योगदान दीजिये...अरे लड़कियां तुम कहाँ चल दी ..अन्दर जा कर खाना बनाने में मन लगाओ...समाज सुधारना मर्दों का काम है..

मैं भी सोच रहा हूँ की एक सस्ता सा...मेरा मतलब है अच्छा सा तिरंगा ले आऊ.


स्वतंत्रा दिवस मुबारक हो.



Friday 18 July 2014

सवाली ख़ुशी

स्टडी के हिसाब से एक चार साल का बच्चा दिन में करीब 400 बार हँसता है जबकि एक वयस्क (अगर आप ये पढ़ रहें हैं तो ज़नाब आप कम से कम वयस्क तो हैं ही ) करीब 15 बार . जी हाँ इसमें उस तरीका का भी हँसना है जिसे आप पागलों की तरह हँसना कहते हैं . आपके स्ट्रेस , आपका काम, आपकी priority, आप कारण कोई भी दें लेकिन ये सच है की आप हँसना भूल गए हैं.
पहले तो आप इस बात को मानते नहीं हैं. और जब मैं (पता नहीं क्यूँ ) आप पर थोडा जोर डालता हूँ तो कई बार आप किसी का नाम लेलेते हैं, किसी इंसान का, किसी चीज़ का, किसी घटना का, या कई बार "तुम नहीं समझोगे यार !!!" जैसी बुद्धिजीवियों वाले जवाब दे देते हैं.

मैंने बहोत लोगों से इस बारे में गुफ्तगुं की और मुझे बहुत से और बहुत ही अलग से (यकीन मानिए, कुछ तो यकीन ना करने की इन्तहां तक अजीब थे) कारण सुनने को मिले.

जो मैंने पाया वो ये था की हर किसी को किसी न किसी चीज़ या इंसान या कंडीशन से दिक्कत है. और वो उसके ना खुश होने का कारण है. लेकिन एक चीज़, एक कारण  जो सभी में एक जैसे थे,जिसे किसी ने नहीं कहा की ये उनके खुश ना होने का कारण है..और वो थे वो खुद.

एक इन्सान ने ये नहीं कहा की वो खुश नहीं हैं क्यूंकि वो खुद नहीं चाहता. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि वो उस जीव या निर्जीव से कुछ ज्यादा ही जुड़ गया है और आगे नहीं बढ़ रहा. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि उसने अपनी ख़ुशी खुद की जगह किसी तोते में बंद कर रखी है. वो तोता जो ना तो अब आपका है और ना ही आपके लिए.


लेकिन आप ये मानना नहीं चाहते, क्यूंकि आपक्को तो बस उस तोते से लगाव था. वो लगाव जो अब जिद्द बन गई है आपकी. जिद्द उसे वापस पाने की. और उस सवाल की , की कैसे आपका प्यारा तोता आपका नहीं है. आप अपनी जिद्द में इतने जकड जाते हैं की आपको इस सवाल के जवाब से अब मतलब नहीं होता..आपको बस ये सवाल पूछना होता है..ये सवाल जिसे सुनने वाला कोई नहीं होता और आप झुंझला जाते हैं और खुश होना आपको बेईमानी सी लगने लगती है. आपकी स्थिति एक गाडी के पीछे भागते कुत्ते की तरह हो जाती है (घबराइए नहीं मैं आपको कुत्ता नहीं कह रहा ) जो आती जाती हर गाडी के पीछे भागता तो है, लेकिन उसके रुकने के बाद समझ नहीं पाता की क्या करें. और वो ये बार बार करता है.

आप तबतक नहीं खुश रह रकते जबतक आप खुद को ये नहीं मानने पर मजबूर कर देते (मजबूर इसलिए क्यूंकि अबतक आप बात के भूत से लात के भूत में बदल चुके हैं ) की आप के पास ही आपकी ख़ुशी का राज़ है.. राज़ जो बहुत ही आसान है. आपको अपनी ख़ुशी किसी तोते के अन्दर नहीं रखनी है. उसे आपको खुद में संजोये रखना है. आपको ये समझना होगा की उस गाड़ी की रफ़्तार आपकी ख़ुशी पर नहीं टिकी है. फिर आप उस गाडी के पीछे (जी हाँ उस कुत्ते की तरह )क्यूँ भाग रहे हैं.

फिर कहीं से सवाल उठता है हम उस "ख़ुशी" (हाँ भाई ..जिसे हम अभी भी ख़ुशी मान रहे हैं) के पीछे जाना छोड़ भी देते हैं तो ससुरी इस बेरहम दुनियां में अगली ख़ुशी कहाँ से ढूंढ कर लाएं... इसका जवाब किसी बड़ी सी चीज़ में नहीं छुपा है. इसका जवाब तो उन सभी छोटी चीज़ों में है जिसपर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.

हमारी ख़ुशी उस बेपरवाह ठहाकों में है जो अपने दोस्तों के साथ बेपरवाह लगाया करते थे.
हमारी ख़ुशी उन दो छिछोरी लाइनों में है जो किसी डायरी में दबी पड़ी है.
हमारी ख़ुशी उन सफ़ेद पन्नों के बेढंगे रंगों में है जो बक्से के एक कोने में बंद है.
हमारी ख़ुशी उन पुराने सिक्कों में है जो बचपन में इकठे करते हुए नए नोटों में सिमट गई है.
हमारी ख़ुशी उन घर की बनी मठरियों में है जो पिज़्ज़ा के खाली डब्बों के साथ घर के कोने में भरी पड़ी है.
हमारी खुशी उस खुली  छत पर है जिसे हम कमरों की आज़ादी में बंद कर आये हैं.
हमारी ख़ुशी उस चुक्कड़ की चाय में है जो hygiene के नाम पर प्लास्टिक के कपों में पड़ी है.
हमारी ख़ुशी हममें है जिसे हम दूसरों की आँखों में खोजते आए हैं.
हमारी ख़ुशी उन छोटी छोटी आदतों में है जिन्हें अपनी इच्छाओं के आड़ में बदल डाली है.
हमारी ख़ुशी इस सवाल में नहीं है की हम खुश क्यूँ नहीं हैं बल्कि इसके जवाब में है की हम पहले जितने खुश क्यूँ नहीं हैं...हमारी ख़ुशी किन्ही जवाबों में नहीं ..बल्कि उन सवालों में है जो हम खुद से करना नहीं चाहते...हमारी ख़ुशी हममे है...
 (आप तो थोड़े भावुक हो गए )

हाँ तो आप कुछ सवाल कर रहे थे!!! नहीं ?? कोई नहीं ?? अच्छा...अच्छा... वक़्त चाहिए आपको... जी हाँ ..लीजिये  लीजिये...वक़्त तो आपही का है.


Friday 4 July 2014

केसरी side of wall

वैधानिक चेतावनी ~ राजनीतिक सासुमाएं कृपया इस पोस्ट को बहु की बनाई चाय समझ कर या तो पी जाएँ या टेबल पर ही रहने दें। पोस्ट को संसद ना बनायें।
केजरीवाल। अरविन्द केजरीवाल। ओह..मैं इसे बांड, जेम्स बांड जैसा sound करवाना चाह रहा था लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।वैसे ऐसा तो होना ही था। इसके दो कारण हैं..
पहला - जेम्स बांड एक काल्पनिक character है।
दूसरा - केजरीवाल को diabetes है।

अगर आपको ये लगता है की ये इंसान एक looser ( looser शब्द कुछ ज्यादा ही आम होगया है हम teenagers में ) है तो जरा खुद को इससे थोडा compare कर लीजिये। और अगर आप इसके थोड़े भी पास आजाते हैं तो ... आप शायद सही कह रहे हैं.
जब आप अपने 20s में friendzone जैसे शब्दों के उधेड़बून में लगे थे आपसे करीब 20-25 साल पहले इस इंसान ने सामजिक नियमों के उलट लव मैरेज जैसा जघन्य अपराध करने की गुस्ताखी की थी। इतना ही नहीं इसने अपने सामाजिक जीवन को व्यवहारिक और पारिवारिक जीवन पर पर असर भी नहीं डालने दिया ( जी नहीं मैंने उल्टा नहीं लिखा है) और इसका एक बड़ा प्रमाण आप इन्टरनेट पर फैले इसकी बेटी के बोर्ड्स और IIT के memes से आसानी से पा सकते हैं। इतना ही नहीं केजरीवाल और उनका परिवार उस उदाहरण का भी हिस्सा हैं जिसमे घर की औरत घर की जिम्मेदारियां लेती है ताकि मर्द अपने मन का काम ( भले ही वो समाज सेवा क्यूँ ना हो ) बिना किसी economic दबाव के कर सके। डरिये मत ... आपसे ऐसा करने को नहीं कह रहा हूँ क्यूंकि आपको भी पता है की आप  hypocrite हैं। और इसके बावजूद आप उनकी मनः स्थिति की गंभीरता , शालीनता और ठहराओ को उनके इंटरव्यूज में आसानी से परख सकते हैं।
ये तो कुछ ऐसी बातें थी जिनपर हमारा जवाब होता है- "अरे मौका हमें भी मिलेगा तो हम भी दिखा देंगे बड़े आये कटाक्ष करने ". लेकिन जनाब कुछ ऐसी भी खूबियाँ मैं गिना सकता हूँ जिससे शायद आपको अपने जवाब में थोड़ी तब्दीली ला सकें ( जवाब तो फिर भी आपके पास कोई ना कोई होगा ही)..
1. IIT में 1000 से कम रैंक। 
2. IAS में सफलता पाकर IRS के अंतर्गत joint commissioner इनकम टैक्स।
3. अपना NGO शुरू करके उसी डिपार्टमेंट में लोगो को घूस लेने से रोकना।
4. RTI जैसे नियमों को जनता के बीच लाकर सिस्टम में पारदर्शिता लाना और इस काम में अपने योगदान करनेके लिए Magsaysay जैसे पुरस्कारों से नवाजा जाना।
5. लोकपाल बिल को लागू करवाने के लिए सतही जोर लगाना जब की आपको पता है की पिछले चार दसक से येही कोशिश की जा रही है।
6. दिल्ली का cm बनना।
7. दो महीनों की तयारी में पंजाब जैसी जगह से चार MP's सामने लाना जिनका कोई राजनितिक इतिहास ना हो।

एक मिनट। शायद नीचे के दो points में मैं थोडा पोलिटिकल कमेन्ट कर बैठा।
8. ये पॉइंट सबसे ज़रूरी है । केजरीवाल नें हममे, जिसे हम youth कहते हैं में, राजनीती के प्रति थोड़ी उम्मीद जगाई। वो उम्मीद जो हमने दशकों पहले छोड़ दी थी। कल तक जो क्षेत्र सिर्फ गुंडों और दबंग लोगों का माना जारहा था आज आम जनता को अपनी बागडोर देने के लिए तैयार है। और आप MTV से थोडा वक़्त निकाल कर अगर न्यूज़ चैनल देखते हैं तो जनाब इसका थोडा तो श्रेय इस इंसान को जाता ही है।
ये सच है की उसने गलतियाँ की हैं जो उसे नहीं करनी चाहिए थी। ये भी सच है की उसने कुछ फैसले किये जो उसे नहीं करने चाहिए थे। ये भी सच है की उसने कई टारगेट्स बनाये जिसे छूने में वो असफल रहा। लेकिन उसके टारगेट्स steep थे। steep जिसे छू पाना आसान नहीं था। और ऐसे टारगेट्स एक achiever ही बना सकता था। इस इंसान की सफलताओं की लिस्ट असफलताओं से लम्बी है और पिक्चर अभी (बहुत) बाकी है मेरे दोस्त।
अगली बार जब आप लोकल ट्रेन में सफ़र करते हुए या BARISTA की कॉफ़ी का लुत्फ़ उठाते हुए भारत की राजनीतिक गुरुत्वाकर्षण पर अपने विचार प्रकट कर रहें हों तो उसे राजनीति तक ही केन्द्रित रखने की कोशिश करियेगा और अगर आपके पास फैक्ट्स कम पड़ गए हैं और आप पर्सनल होना भी चाहते हैं, तो एक बार ये पेज खोल लीजिएगा। शायद थोड़ी मदद मिले।
ps. अम्मा यार ...satire कौन ले गया रे इस पोस्ट का।