इलाहाबाद
रेलवे स्टेशन.
सुबह का
वक़्त था. मैं ट्रेन की अपनी बहोत ही " खुशनुमा " सफ़र खत्म कर के बाहर आ
रहा था. "भईया, कहीं छोड़
दूं" एक बहोत ही बूढ़ा, शायद दो दिन से भूखा जो खुद खड़े होने तक की जद्दोजहद
कर रहा था, वो मुझ जैसे भारीभरकम शरीर को ढोने की बात कर रहा था. "शुक्रिया दोस्त". बस यही निकला मेरे
मुंह से और मैं आगे बढ़ गया.
शुक्रिया
दोस्त..??... क्या चल रहा था मेरे
दिमाग में. इसबार शायद कुछ भी नहीं. कम से कम उसकी लाचारी,बेबसी तो कत्तई नहीं. मेरे दिमाग में कोई चल रहा था तो वो मैं था. मैं, जो कुछ साल पहले इसी स्टेशन से उतरा था, इन्ही कमज़ोर , कर्कस और घुटन भरी आवाज़ों के बीच
से गुज़रता हुआ. नफरत और घृणा से भरा, ऐसे अप्रिय शब्दों का प्रयोग करता हुआ जो मैं
खुद अपने लिए नहीं सुनना चाहूँगा.
दिल्ली मेट्रो
स्टेशन.
सुहानी
शाम. दोस्तों के साथ. आज अपूर्व का
जन्मदिन है. सभी उतने खुश हैं जितने
exams के dates खिसकने पर भी नहीं होते.
चीखते चिल्लाते हम बाहर निकलते हैं..
मेरी नज़र बाहर एक औरत, जो अपने दो साल के दिखने वाले बच्चे के साथ जो उसकी गोद में
एक मांस के लोथड़े की तरह पड़ा हुआ था, पर गई. लेकिन इस बार मैं उसे अपनी जेब से पैसे निकल कर नहीं दे पाया.
क्या हो
गया था मुझे...क्या चल रहा था दिमाग
में. क्या अखबार का वो टुकड़ा जिसमे इस तरह के भीख मांगने वालों के गोरखधंधे के
बारे में लिखा था.. या ये की आखिर
ये कब तक मेरी ज़िम्मेदारी है.. इस
बार आगे बढ़ते वक़्त मुझमे थोडा दुःख तो था लेकिन पश्चाताप की भावना नहीं. पिछली बार तो ऐसा नहीं था. पिछली बार तो ना वो
अखबार का टुकड़ा था और न ही इतनी परिपक्वता.
...
अजीब है ना. ये आप और हम ही हैं. एक
ही समय में, एक ही परिस्थिति में, अलग अलग तरह से व्यवहार करते हुए. मैंने बस अभी इस बात का उदाहरण दिया है की
हमारा दिल और दिमाग एक साथ काम करते भी हैं और नहीं भी.
जब हम
छोटे होते हैं तो हमें बहोत चीज़ों का ज्ञान नहीं होता, हम अपने आस पास के environment से छोटी छोटी कड़ियाँ इकट्ठी करते हैं
और उन्हें जोड़ने की कोशिश करते हैं.
और जो हमारे सामने आता है उसे ही परम सत्य मान कर आगे की जिंदगी बिताने का खुद से
वादा कर लेते हैं. हमें गांधी के
आदर्श पसंद आते हैं, हमें खाने की
बर्बादी पर गुस्सा आता है, हमें ऑटो से नहीं साइकिल से स्कूल जाना है, कपडे साफ़ और
प्रेस चाहिए, रोड पर हुए गड्ढों के लिए हम भगवन को कोसते हैं, हमें हिरोशिमा पर
हुए हमले दुनिया की सबसे बड़ी भूल लगती है. हम कोई सवाल नहीं करते. हम बस पुरानी चल
रही भावनाओं और विचारों का आँख बंद कर पालन करते हैं.
हम थोड़े
बड़े हुए. खुद पर थोडा शक हुआ.
सवालों का भूख बढ़ा तो उन्हें पूरा करने की कोशिश में लग गए. इसका परिणाम ये हुआ की अब हम गांधीवादी नहीं रह
गए, खाने की बर्बादी को ecological cycles में explain करने लगे, अब
हमें साइकिल पर शर्म आती है, कपड़ों
के साफ होने की ज़रुरत नहीं, रोड पर हुए गड्ढों के लिए अब हम भगवान् को नहीं नगर
पालिका को कोसते हैं. अब हम हिरोशिमा पर हुए हमलों को आगे कभी ना होने वाली गलती
की शिक्षा के रूप में लेते हैं.
काफी कुछ बदल गया है.
हम थोड़े
और बड़े होते हैं. इतने की शायद अब
इससे बड़े होने की कोई गुंजाईश नहीं है. अब मैं परिपक्वता की पराकाष्ठा पर हूँ. अब सवालों की भूख नहीं है मुझे. अब जवाबों की कशमकश ही है.
अब गाँधी समकालीन राजनीतिक परिस्थियों के लिए गलत और सामाजिक उत्थान के लिए अच्छे
लगने लगे हैं, अब एक शादी में खाने की बर्बादी वहां काम कर रहे मजदूरों के भूखे सो
जाने से ज्यादा बड़ी सजा नहीं लग रही, अब साइकिल चलाना ही स्वस्थ रहने का एक जरिया
नजर आता है, कपडें साफ़ ना हों तो निकृष्टता की भावना घर करती है अब, रोड हुए गड्ढों के लिए अब नगरपालिका से ज्यादा
भागवान पर गुस्सा आता है की कोई फ़िक्र भी है तुम्हे इस संसार की या नहीं, अब हिरोशिमा पर हुए हमले भले ही आगे के लिए एक
शिक्षा हो लेकिन वहां खोई हुई इंसानों की जिन्दगिया अब ज्यादा अफ़सोस देती है.
जिंदगी
वापस वहीँ आगे है जहाँ से शुरू हुई थी. वही जिंदगी जो कभी दिल से,कभी दिमाग से, कभी दोनों से तो कभी दोनों के
बिना आगे बढती ही है. Chaos भले ही जिंदगी की सच्चाई भी हो और भ्रम भी,
लेकिन ये आपके जिंदगी में किये गए फैसले ही हैं जो इसे रोके रखते हैं और आगे भी
बढाते हैं. जिंदगी का सफ़र जहाँ शुरू
होता है वहीँ खत्म भी.
owsm gud yr... finaly i realize sumthng which i forget in myself... thax yr.. :)
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ReplyDeleteइसे देखने के बाद मन में ये आया-
"दवात से स्याही सब निकाल लेते है मेरे दोस्त
कोई बिना छिडके लिख के दिखाए तो जानूँ।
तुमने लिखने में काफी कम स्याही छिडकी है।मैं इसे आत्म-मंथन का उत्कृष्ट उदाहरण कहूँगा।
amazing sir..
ReplyDeleteespecially the u have represented those 3 stages of the CYCLE is pretty good :)
जिंदगी वापस वहीँ आगे है जहाँ से शुरू हुई थी.
ReplyDeletekya baat keh di sir !!
right from the title to the justification.. beautifully woven !
Amazing post which definitely makes you question yourself !
True buddy, very true... What we seldom notice is the initiation and completion of the cycle because they are so perfectly blended together, just like the non-existent ends of a circle. Also, within this cycle, there are lot of smaller cycles or sub-cycles, which if realised, may point towards the larger one :) nicely written
ReplyDeleteawsm sir..:)
ReplyDeleteGrt lines... :) :) a grt food for thought... :) :)
ReplyDeleteYou are improving day by day. its always good to read you.
ReplyDeletegreat stuff bhai
ReplyDeleteये आपके जिंदगी में किये गए फैसले ही हैं जो इसे रोके रखते हैं और आगे भी बढाते हैं.
u represent the thoughts in such a lucid manner ki bas maza hi a jata hai
amazing!!
really nice to read it...
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