स्टडी के हिसाब से एक चार साल का बच्चा दिन में करीब 400 बार हँसता है जबकि एक वयस्क (अगर आप ये पढ़ रहें हैं तो ज़नाब आप कम से कम
वयस्क तो हैं ही ) करीब 15 बार . जी हाँ इसमें उस तरीका का भी हँसना है
जिसे आप पागलों की तरह हँसना कहते हैं . आपके स्ट्रेस , आपका काम, आपकी priority, आप कारण कोई भी दें लेकिन ये सच है की आप
हँसना भूल गए हैं.
पहले तो
आप इस बात को मानते नहीं हैं. और जब
मैं (पता नहीं क्यूँ ) आप पर थोडा जोर डालता हूँ तो कई बार आप किसी का नाम लेलेते
हैं, किसी इंसान का, किसी चीज़ का, किसी घटना का, या कई बार "तुम नहीं समझोगे
यार !!!" जैसी बुद्धिजीवियों वाले जवाब दे देते हैं.
मैंने बहोत लोगों से इस बारे में गुफ्तगुं की और मुझे बहुत
से और बहुत ही अलग से (यकीन मानिए, कुछ तो यकीन ना करने की इन्तहां तक अजीब थे)
कारण सुनने को मिले.
जो
मैंने पाया वो ये था की हर किसी को किसी न किसी चीज़ या इंसान या कंडीशन से दिक्कत
है. और वो उसके ना खुश होने का कारण
है. लेकिन एक चीज़, एक कारण जो सभी में एक जैसे थे,जिसे किसी ने नहीं कहा
की ये उनके खुश ना होने का कारण है..और वो थे वो खुद.
एक इन्सान ने ये नहीं कहा की वो खुश नहीं हैं क्यूंकि वो खुद
नहीं चाहता. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि वो उस जीव या निर्जीव से कुछ ज्यादा ही
जुड़ गया है और आगे नहीं बढ़ रहा. वो इसलिए खुश नहीं है क्यूंकि उसने अपनी ख़ुशी खुद
की जगह किसी तोते में बंद कर रखी है. वो तोता जो ना तो अब आपका है और ना ही आपके लिए.
लेकिन
आप ये मानना नहीं चाहते, क्यूंकि आपक्को तो बस उस तोते से लगाव था. वो लगाव जो अब
जिद्द बन गई है आपकी. जिद्द उसे
वापस पाने की. और उस सवाल की , की कैसे आपका प्यारा तोता आपका नहीं है. आप अपनी जिद्द में इतने जकड जाते हैं की आपको
इस सवाल के जवाब से अब मतलब नहीं होता..आपको बस ये सवाल पूछना होता है..ये सवाल जिसे सुनने वाला कोई नहीं होता
और आप झुंझला जाते हैं और खुश होना आपको बेईमानी सी लगने लगती है. आपकी स्थिति एक गाडी के पीछे भागते कुत्ते की
तरह हो जाती है (घबराइए नहीं मैं आपको कुत्ता नहीं कह रहा ) जो आती जाती हर गाडी
के पीछे भागता तो है, लेकिन उसके रुकने के बाद समझ नहीं पाता की क्या करें. और वो
ये बार बार करता है.
आप तबतक
नहीं खुश रह रकते जबतक आप खुद को ये नहीं मानने पर मजबूर कर देते (मजबूर इसलिए
क्यूंकि अबतक आप बात के भूत से लात के भूत में बदल चुके हैं ) की आप के पास ही
आपकी ख़ुशी का राज़ है.. राज़ जो बहुत
ही आसान है. आपको अपनी ख़ुशी किसी
तोते के अन्दर नहीं रखनी है. उसे आपको खुद में संजोये रखना है. आपको ये समझना होगा की उस गाड़ी की रफ़्तार आपकी
ख़ुशी पर नहीं टिकी है. फिर आप उस
गाडी के पीछे (जी हाँ उस कुत्ते की तरह )क्यूँ भाग रहे हैं.
फिर
कहीं से सवाल उठता है हम उस "ख़ुशी" (हाँ भाई ..जिसे हम अभी भी ख़ुशी मान
रहे हैं) के पीछे जाना छोड़ भी देते हैं तो ससुरी इस बेरहम दुनियां में अगली ख़ुशी
कहाँ से ढूंढ कर लाएं... इसका जवाब किसी बड़ी सी चीज़ में नहीं छुपा है. इसका जवाब
तो उन सभी छोटी चीज़ों में है जिसपर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.
हमारी
ख़ुशी उस बेपरवाह ठहाकों में है जो अपने दोस्तों के साथ बेपरवाह लगाया करते थे.
हमारी
ख़ुशी उन दो छिछोरी लाइनों में है जो किसी डायरी में दबी पड़ी है.
हमारी
ख़ुशी उन सफ़ेद पन्नों के बेढंगे रंगों में है जो बक्से के एक कोने में बंद है.
हमारी
ख़ुशी उन पुराने सिक्कों में है जो बचपन में इकठे करते हुए नए नोटों में सिमट गई है.
हमारी
ख़ुशी उन घर की बनी मठरियों में है जो पिज़्ज़ा के खाली डब्बों के साथ घर के कोने में
भरी पड़ी है.
हमारी
खुशी उस खुली छत पर है जिसे हम कमरों की
आज़ादी में बंद कर आये हैं.
हमारी ख़ुशी उस चुक्कड़ की चाय में है जो hygiene के नाम पर प्लास्टिक के कपों में पड़ी है.
हमारी ख़ुशी उस चुक्कड़ की चाय में है जो hygiene के नाम पर प्लास्टिक के कपों में पड़ी है.
हमारी
ख़ुशी हममें है जिसे हम दूसरों की आँखों में खोजते आए हैं.
हमारी ख़ुशी उन छोटी छोटी आदतों में है जिन्हें अपनी इच्छाओं के आड़ में बदल डाली है.
हमारी ख़ुशी इस सवाल में नहीं है की हम खुश क्यूँ नहीं हैं
बल्कि इसके जवाब में है की हम पहले जितने खुश क्यूँ नहीं हैं...हमारी ख़ुशी किन्ही जवाबों में नहीं ..बल्कि उन सवालों में है जो हम खुद से करना नहीं चाहते...हमारी ख़ुशी हममे है...
(आप तो थोड़े भावुक हो गए )
