Wing Up

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Friday, 9 August 2013

शायद कल

जब दिल्ली में कांड हुआ तब मैं वहां पर ही था. आप भी सोच में पड़ गए होंगे की भला किस कांड की बात कर गया मैं.एक तो हुआ नहीं है वहां. रोज नए मसाले के साथ वहां की मीडिया हमारे सामने हाज़िर रहती है. इतना मत सोचिए जनाब .. आप किसी भी केस की पहले, साथ और बाद के हालात को ले सकते हैं.

हम इंजीनियरिंग स्टुडेंट्स को अक्सर मेस में सड़ा खाना ही नसीब होता है. और खास कर दिल्ली जैसे शहर में तो रोज बाहर खाना हम जैसे afford  भी नहीं कर पाते. ऐसा नहीं है की हमारे घर वाले पैसे नहीं देते हमें. वो तो बस ऐयाशियों में उड़ जाते हैं. सो हम अक्सर रात को खाने के बाद दिल्ली मेट्रो में कुछ ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने निकल पड़ते. भईया दिल्ली है ये... यहाँ रात आठ बजे भी रौनक अपने सातवें आसमान पर होती है.

रात में अपने assignment  के बोझ तले दबा ये इंजिनियर जब सुबह कुछ देर से उठा तो पूरे हॉस्टल का माहौल कुछ बदला सा था. ऐसा लग रहा था की किसी exam  का रिजल्ट अचानक से गया हो. उन कुछ मिनटों में मेरे ऊपर क्या गुज़री होगी ये शायद आपको बताने की ज़रूरत नहीं है.

मैं बहोत कुछ समझ पाता तबतक एक बंदा एक न्यूज़ पेपर का front पेज लेकर मेरे पास आया. मैं पढ़ पाता तबतक उसने सारी कहानी एक सांस में सुना दी. उस लड़की के बारे में, जो 10  दिन तक मीडिया की TRP बढा कर इस दुनिया से जाने वाली थी. और उन इंसानों के बारे में भी जो जाने किस नस्ल के थे. शायद इंसान भी ना हों. क्या पता.

करीब आधा घंटा इसपर देने के बाद मैं कॉलेज के लिए निकला. वहां भी यही हाल. लंच पर भी. सब की जबान पर एक ही बात थी. आज लोगों में गम था गुस्सा था. सभी इंडिया गेट जाना चाहते थे. सभी अपना आक्रोश ज़ाहिर करना चाहते थे. लेकिन आज लोग भटके हुए थे. डरे हुए. उन्हें ये समझ नहीं आरहा था की गुस्सा किसपर उतारें. हमारी व्यवस्था पर , हमारे समाज पर या हमारे लड़के लड़कियों पर. और सबने गुस्सा उतरा. किसी एक पर नहीं.  सभी पर उतरा.

लेकिन
सवाल अभी भी वही था... सामाजिक उत्पीडन तो हुआ था. लड़कियों का और लड़कों का. वो भले ही शारीरिक हो या मानसिक. लड़कियाँ अब रात में अपने घरों से निकलने से डरने लगीं थी. वो अपने साथ के पुरुषों से घबराने लगी थीं. लड़के अब किसी लड़की को देखने से पहले सोचते थे. किसी हमशक्ल के धोखे में अब कोई लड़का किसी लड़की को नाम से नहीं पुकारता था. बाप अपनी बेटी को दिल्ली से बाहर पढाना चाहते थे. जिनकी बेटियां पहले से दिल्ली में थीं उनके डॉक्टरों की कमाई उनके blood pressure की तरह बढ़ने लगे थे. लड़के किसी अनजान लड़की की मदद करने से घबराने लगे थे. उन चौपालों पर अब लड़कियों की बातें नहीं हुआ करती. अब कोई 'देख भाभी आज पीले सूट में आई हैं' नहीं कहता था. तेरी-वाली मेरी-वाली पर शर्तें नहीं लगती अब.  Ladies  कम्पार्टमेंट में कोई मजनू किसी का पीछा करते नहीं घुसता था. अब हमने भी खाने के बाद ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने की अपनी आदत को खत्म कर दिया था. दिल्ली में रौनक तो थी लेकिन डरी, सहमी और असहाय.

व्यंग लिखने की सोचा था ..लेकिन लिखा नहीं गया ..शायद ठंढी हवा खाने की आदत अभी पूरी तरह गई नहीं. शायद ये निगाहें अभी भी रात के आठ बजे दिल्ली के मेट्रो में बेबाक, बेख़ौफ़ और बिंदास रौनकों के उम्मीद में हैं. शायद अभी हमने उमीदें रखनी खत्म नहीं की है. शायद ...

7 comments:

  1. लेखन शैली में दिन-ब-दिन निखार आ रहा है!
    थोडा सा अधूरी छूटी बात एक दो वक्तव्यों में बाकी बहुत बढ़िया काम

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  2. society ki ghatiya soch n yahaan ki gandi politics iss country ko dommsday se pehle khatm kr degii..delhi to sach me rape city ban chuka hai

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  3. to read something lyk this from a male's point of view and still finding a chill run down the spine says it all !

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  4. padhega india tabhi to badhega india....

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  5. shukriya arzoo...il try to wrte furthr..

    sneha..i still confused..ki kehna kya chah rahe ho..

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