Wing Up

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Thursday, 31 January 2013

Back in Eighth

8 वीं में था मैं. छोटे से शहर का छोटा सा स्कूल. मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता है. पड़ता भी क्यूँ अबतक मैं १० स्कूल बदल चूका था.  जी नहीं .. मैं मंद बुद्धि का नहीं था बस मेरे पिताजी एक सरकारी मुलाजिम थे जिनकी नौकरी उन्हें एक जगह ज्यादा दिन नहीं टिकने देती थी. वैसे अगर एक दो स्कूल और बदल लेता तो आपका पहला अनुमान शायद सही होता.

हाँ तो मैं इस स्कूल के बारे में बता रहा था. छोटा सा क़स्बा था तो लोग भी सीधे साधे ही थे. और वैसे भी 8 वीं के बन्दे को क्या फर्क पड़ता है कसबे क लोगों से. मेरी सुबह भी आम बच्चों की तरह सुबह ज़बरदस्ती जागने से होती थी. मुझे भी स्कूल जाना वैसा ही लगता था जैसा आपसभी को लगता था. मैं ये मान रहा हूँ की अगर आप ये पढ़ पा रहे हैं तो कभी जाने अनजाने स्कूल की शक्ल तो देखी ही होगी .खैर. एक बार जागने के बाद चीजें मेरे हाथों से ज्यादा निकलती नहीं थीं. इस बात का गवाह मेरे यहाँ लगा वो छोटा सा गेंदे का पौधा है जिसने complan वाला दूध पीते हुए अपनी जवानी क दिन बिताएं हैं.

पॉकेट मनी के नाम पर 2 दिन में 3 रूपए मिला करते थे. उन 3 रुपएओं को रुमाल में फोल्ड कर के जेब में दुबका कर मैं अपनी black inferno पर सवार होकर तेजी से पैडल मारता हुआ निकलता था. जी हाँ .. आपको शायद एक बार black inferno , Lamborghini Gallardo जैसी फील दे रहा होगा.लेकिन मुझे ऐसा रोज ही महसूस होता था. वक़्त ही ऐसा था. मैं तेजी से निकल तो जाता था लेकिन घर लौट कर रोज गेट खुला छोड़ जाने के लिए डांट खाता था. अब आप ही बताइए , सुबह सुबह उस बड़े से टीन के डब्बे को हाथ कौन लगाए जब साइकिल का टायर ये काम अच्छे से कर ही देता ही देता था.हाँ अधूरा काम ही सही.

जैसे तैसे चौराहे तक साइकिल चेतक की तरह भागते हुए पहुचता था। और चौराहे आते ही साइकिल अपने आप रुक जाया करती थी। शायद अपने आप या शायद.. पता नहीं..बस रुक जाती थी। और आँखे दूसरी तरफ से आते अपने दोस्तों की टोली को ढूँढने लगती। उस वक़्त हाथों पर लगी घडी से ज्यादा आगे निकलते दुसरे साइकल्स के झुण्ड पर ज्यादा भरोसा हुआ करता था। गालियों का दौर तो बड़ा आम था।अगर मैं देर से चौराहे पर पहुचता था तो मैं गाली खाता था और अगर वो देर से पहुचते तो प्रसाद बाँटने का काम मैं करता। नियम बहोत ही आसान थे।

ये चौराहा ही वो जगह थी जहाँ हम newton साहेब को अलविदा कह कर einsten महोदय को अपने आगे की बागडोर थमा देते थे। अगर चौराहे से स्कूल के बीच मेरे परिवार से किसी ने मुझे कभी देख लिया होता तो मैं आज यहाँ ये ब्लॉग नहीं लिखने की जगह बगल वाले ब्लाक में घास काट रहा होता। हमारे रास्ते में एक नदी पड़ती थी। आज तक ऐसा नहीं हुआ जब हम वहां न रुके हों।क्यूँ। आज तक हम भी इस सवाल का जवाब ढूंढ नहीं पाए।

रोज का यही नाटक था हमारा। जैसे तैसे हम सही सलामत स्कूल पहुच ही जाते थे।और स्कूल गेट से अन्दर घुसने के साथ ही हमारी दूसरी युध्भूमि तैयार रहती थी। साइकिल स्टैंड। विश्वास कीजिए , ये काम जितना आसान सुनने में लगता है वैसा बिलकुल भी नहीं हुआ करता था। जो आगे साइकिल लगाएगा वो ही शाम को सबसे पहले घर की और निकलेगा। वैसे ये काम मेरे लिए आसान हुआ करता था। अरे धोखा मत खाइये .. मैं रोज आगे नहीं लगाता था .. मैं कम लम्बाई वाले लडको में हुआ करता था ..इसलिए मैं चुपचाप पीछे लेजाकर साइकिल लगा दिया करता था।

अब वक़्त था तीसरे महायुद्ध का। ये सबसे आम लड़ाई हुआ करती थी। सीट्स। अब ये मत कहिएगा की आपने इस युद्ध को कभी महसूस नहीं किया है। आगे की दो लाइने तो वो बच्चे ले लिया करते थे जो शायद घर जाते ही नहीं थे। पता नहीं, लेकिन हमारी जंग तो तीसरे और उसके पीछे वाले बेंचों क लिए हुआ करती थी। ये वक़्त हुआ करता था जब हम उस किताबों से भरे अपने बस्तों को पोटली और सीट्स को DTC बस बना लेते थे। जिसकी पोटली पहले गडी, सीट उसकी हुई। पिछली बेंच पर बैठने पर एक बात तो तय हुआ करती थी आपका लंच , लंच ब्रेक से पहले खत्म हो जाएगा। "सर, मुझे पीछे से दिखाई नहीं देता है!" और लीजिए अपनी लम्बाई का  वो फायदा जो मैं द्वितीय ( विश्व ) युद्ध में नहीं उठा पता था वो यहाँ तृतीय ( विश्व ) युद्ध में उठा लेता था। जी हाँ, मैं शुरू से चालू आइटम हुआ करता था।

अबतक जो भी हुआ था वो हम बेचारे और मासूम बच्चों ( खी खी खी ) के बीच हुआ करता था। लेकिन अब उस विलेन की एंट्री की बारी थी जिसे हम कहते थे ' The PT Teacher '। हे हे .. मजाक कर रहा हूँ।उस वक़्त PT टीचर के नाम के आगे  THE लगाने का रिवाज नहीं हुआ करता था। हम उसे रज्जो बुलाते थे. और हमारे पास उसके रज्जो होने का पूरा कारण भी हुआ करता था. हमने आज तक किसी रजाई वाले को इस तरह रजाई धुनते नहीं देखा था जिस तरह वो लड़कों को धुनता था.सिर्फ मोज़े सही से ना पहनने पर तो बादशाह सलामत हिटलर भी इतने खफा नहीं होते थे जितने ये हमारी रज्जो रानी हो जाया करती थी. ( परेशान मत होइए रज्जो जी पुरुष ही थे ).आज के वक़्त में अगर कोई टीचर किसी को 4 डंडे मार दे तो सुप्रीम कोर्ट में फाइलों की संख्या बढ़ जाती है. उस वक़्त ऐसा नहीं था.

उस लाइन में सबसे आगे कोई नहीं लगना चाहता था. रज्जो जो घूमता था.हम पीछे ही रहते थे. स्टेज पर किसी से हुई एक गलती कब बेफिजूल की हंसी में बदल जाती थी, किसी को खबर नहीं होती. हम छुपे रुस्तमों में से थे. मजाक मैं 8 th की लाइन में करता जो 9th की लाइन से होते हुए किसी 10th वाले के गले की घंटी बन जाती.उस दिन रज्जो के हाथो एक नया एंटरटेनमेंट देखने को मिलता.जब ये सब निपट जाता तो हम बड़ी शांति से अच्छे बच्चों की तरह अपने अपने क्लासेस की और निकल पड़ते.बिना एक आवाज किए हुए.

आज सोचता हूँ की क्यूँ गेट को बिना किसी फ़िक्र के आधा खोल कर घर से निकल पाता हूँ. क्यूँ जिंदगी उस बेफिक्र साइकिल की तरह नहीं चल पाती. क्यूँ हम आज इतना बेफिक्र बेवजह बिना कारण किसी नदी पर रुका पाते . क्यूँ किसी का नाम बिगाड़ते वक़्त इतना सोचना पड़ता है. क्यूँ मैं एक दिन बिना घडी क नहीं काट सकता हूँ. क्यूँ आज मैं किसी चौराहे पर किसी अपने का इन्तेजार नहीं करता हूँ. क्यूँ दिन की ऐसी शुरुआत अब नहीं होती. क्यूँ.

Wednesday, 30 January 2013

Chat box

21 वीं  सदी है ये या शायद 22 वीं।क्या फर्क पड़ता है। इसे हम आज का जमाना कहते हैं। और हम हैं आज के इंसान। हाँ भाई, हों भी क्यूँ ना, कल का इंसान तो कहीं ऑफिस में या तो किसी पर चिल्ला रहा होगा या किसी की सुन रहा होगा। लेकिन हमें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। हम शान्ति प्रिय इंसान हैं। शाम को जब वो थका मांदा इंसान घर लौटेगा तब ही निपटेंगे उससे। आपने भी ना, पता नहीं किस बेतुकी बात में ऊलझा दिया मुझे। मैं बात कर रहा हूँ - इस जमाने की। ना ना ना ..धोखा मत खाइये , जब मैंने कहा इस ज़माने की तो मेरा मतलब था सिर्फ इस जमाने की। मुझे न तो अपने भूत से कोई शिकायत है और ना की अपने भविष्य की चिंता। तो हम सिर्फ हमारी बात करेंगे।

मैं मल्होत्रा जी के यहाँ आज 21 साल के एक मित्र से मिला। मल्होत्रा जी हमारे पडोसी हैं।  असल में "मल्होत्रा" सबसे ज्यादा बिकने वाला हेल्दी सा सरनेम है , इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूँ। चलिए टॉपिक से भटकते नहीं हैं। तो मैं इस शख्स से मिला। ज्यादा खुश नहीं लग रहा था। मैं उससे कारण पूछ ही लेता अगर उसकी शक्ल उन ढाई घंटो में लैपटॉप से हटकर एक बार भी इधर उधर गई होती। मैं शिकारी की तरह महसूस कर रहा था जो शिकार की ताक में घात लगे बैठा था। मेरे दिमाग में चल रहा था की हो सकता है इसे भी राजनीतिक उथलपुथल की भनक लग गई होगी और ये अपने विचारो के गहमा गहमी में अपने सामने पिछले ढाई घंटे से बैठे भीमकाए शरीर को ना देख पा रहा हो ( जनाब ये मैं अपने आपको संबोधित कर रहा हूँ, इतनी तो आजादी है ना ) फिर दूसरा विचार आया की नहीं यार हो सकता है की अंतररास्ट्रीय ख़बरों का शौक़ीन हो .. अब दुनिया इतनी बड़ी है , उसके बारे में जानने में इतना वक़्त देना तो बनता है। लेकिन अभी भी उसका सडा सा चेहरा मेरे लिए किसी रहस्य से कम नहीं था। तभी उसके लैपटॉप से एक बीप की आवाज आई और ये मेरे नए मित्र कुछ बडबडाते हुए चार्जर की ऒर बढ़ी। मैंने सोचा अच्छा मौका है। मैंने झट से पहला सवाल दागा " परेशान हो??"

कुछ वक़्त की मिन्नतों के बाद जो बात पता चली उसने मेरे सोचने के नजरिए को थोडा बदल दिया। ऐसा नहीं है की मुझे परम सत्य की प्राप्ति हुई, बस कुछ बदल गया! और आप , आप तो जब सुनेंगे तो सोचेंगे की ये इंसान पागल हो गया है, इस आम सी बात का ये बतंगड़ बना रहा है।

ब्रेकअप!!! हाँ .. ये जनाब जो की मल्होत्रा जी के सबसे बड़े सुपुत्र हैं, वे पिछले ढाई घंटे से किसी अंतररास्ट्रीय खबर या राजनितिक मुद्दे को लेकर नहीं, अपनी जिंदगी में चल रहे भावनात्मक पहलू को लेकर परेशान हैं। अरे आपको तो हंसी आ रही है। मुझे पता है की आप मेरी मुर्खता पर हंस रहे हैं की मैं इस छोटी सी बात को इतने जोर देकर क्यों पेश कर रहा हूँ।

बात सिर्फ भावनात्मक पहलु की नहीं है बात है नैतिक मूल्यों और अपनी जिम्मेदारियों की। आज का युवा ठंड में रजाई में दुबक कर बहोत ही आसानी से चाय की चुस्कियां लेते हुए फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर सारे ज्वलनशील मुद्दों पर अपनी राय दे रहा है। एक तरह से देखा जाए तो ये अच्छी बात है। कम से कम उसे देश और विदेश की कुछ खबर तो है। मेरा सवाल सिर्फ इतना है क्या यह राय आपके खुद की बनाई हुई है ?? कहीं आप भेड़चाल का हिस्सा तो नहीं। क्यूंकि अपनी राय बनाने की लिए हमें थोडा वक़्त तो उस मुद्दे की सभी पहलु को देखने में देना ही होगा। और इतना वक़्त तो है ही नहीं हमारे पास। जो भी वक़्त पढाई ( मैं इसे भी काम मान ही लेता हूँ )  और दोस्तों से मिलने मिलाने के बाद मिलता है वो फेसबुक पर इन्वेस्ट ( इन्वेस्ट की जगह बर्बाद लिखना मुझे भारी पड़ सकता था ) हो जाता है।

मैंने अपने हॉस्टल के एक मित्र से पुछा तो उसने कहा - मालिक दो मिनट की मैगी बनाने की तो फुर्सत नहीं है दुनिया भर के चोचलों पर राय कहाँ से बनाता फिरूं। मैंने सोचा कह भी तो सही रहा है, अपने 723 दोस्त, जो फेसबुक पर हैं उनकी समस्याएँ क्या कम हैं सुलझाने को जो साउथ अफ्रीका के किसी दुरस्त गाँव में भूख से मर रहे लोगों क बारे में चिंता करूँ। वो कौन सा मेरे ताऊ के लड़के हैं। और जितना मेरे आतंरिक शांति की बात है, वो मैंने एक पेज को लिखे कर के पा ली है। नहीं नहीं ..सच में . उसपर एक अजीब से गंदे बच्चे की तस्वीर थी ( मुझे तो लग रहा है की photoshop की हुई थी ) और लिखा भी था की मैं जितना लाइक करूँगा उतने पैसे उस बच्चे को दिए जाएँगे .. और मैंने फटाफट लाइक्स भी ठोके थे। अब इससे ज्यादा मैं कर भी क्या सकत हूँ। बेचारा जो हूँ।

अरे .आपने तो मुझे सच में बेचारा समझ लिया। आपने तो विदेशों की बात छेड़  दी इसलिए मैं फ़ैल नहीं पाया। अपने देश की बात करिए तो बताऊँ। अभी जो दिल्ली और देश के दुसरे कोनों में जो घटनाए हुई हैं ( असल में देश के दुसरे तबकों के बारे में ज्यादा नहीं पता है मुझे लेकिन फिर भी ) मैंने उसपर बहोत बहस की है , मुझसे ज्यादा पुलिस  और नेताओं को किसी ने नहीं गालियाँ दी होंगी। आप चाहें तो चेक कर लें। बात करते हैं की हम सजग नहीं हैं। जाइए  जनाब अपना काम करिए चैट पर कई मित्र मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।

Monday, 28 January 2013

Nervousness

नहीं। बिलकुल नहीं। मुझे कभी भी इस बात पर ज़रा भी शक नहीं था की मैं जब भी लिखूंगा हिंदी में ही लिखूंगा। ऐसा नहीं है की मैं इंग्लिश में लिख नहीं सकता या अपनी भावनाएं नहीं प्रकट कर सकता, मैं बस ये अपने दिमाग के लिए कर रहा हूँ। हाँ , आप सही सोच रहें हैं की यहाँ तो ' दिल ' होना चाहिए था, लेकिन विश्वास मानिए ऐसा करने पर ये एक अलग ही ज्वलनशील मुद्दा बन जाएगा।

मुझे बस उन बुद्धिजीवियों से ज़रा परहेज है जो इंग्लिश की किताबें लेकर सिर्फ इसलिए सफ़र करते हैं जिससे दुसरे उन्हें  देखकर बुद्धिजीवी समझने लगें।  भईया  !!! कोई इन्हें समझाए की दुसरे आपसे बड़े वाले हैं। उन्हें तो ये भी नहीं पता होता की 'बुद्धिजीवी' दिखने क लिए किताब कौन सी ढोते हैं।

आपने भी ना मालिक , पता नहीं किस मुद्दे में फंसा दिया मुझे।

मैं तो बस बोलने में ही विश्वास  रखता था। मुझसे कहा गया की ज़नाब लिखा कीजिए, जोर पड़ता है। मैंने बहोत समझाने की कोशिश की, की भाईसाब ज़रा उस सरकारी मुलाजिम से यही बात कहिये की चचा जो मांग रहें हैं ज़रा लिख कर दिजिगा, तब आपको इस बात की गहराई का अंदाजा होगा।

फिर भी ये इन्सान चुकी काफी करीबी थे तो मैंने लिखना शुरू कर ही दिया। पर लिखूं किस बारे में। मैं तो ठहरा मासूम सा सिविल इंजिनियर, लिखता भी तो क्या ... हमारी किताबें तो चुने पत्थर , मिट्टियों और एक अदद  गन्दगी से भरी होती हैं। तो मैंने सोचा की भाई साहब से ही पूछ लिया जाए।
जवाब थोडा सहमा देने वाला था, जवाब आया -- "सामाजिक गन्दगी को रोक न सही पर चूने पत्थर जैसे बुधिजिवियों को जागरूक कर सामजिक दीवार तो खड़ी  कर ही सकते हो।"  नहीं ...नहीं ... परेशान मत होइये ..ये सुन कर मैं बेहोश नहीं हुआ।

सबसे पहले तो मुझे थोड़ी हंसी आई " बुद्धिजीवी " सुन कर। फिर जैसे तैसे हसी रोक कर, ऑंखें खोलने का नाटक करते हुए कहा - भईया थोडा ज्यादा नहीं हो गया? मतलब इस भाषा में बात ही कौन करता है आज क ज़माने में। 60 से ऊपर उठ चले हो क्या च्चा ! ये लाइने  तो अब ट्रेन के जनरल  डब्बो में बैठे मंहगाई से पीड़ित गरीब तबके के लोग भी इस्तेमाल नहीं करते भाई । तू कहाँ से आया है।
अरे इन्हें कोई तो बताओ की हम उस युग के बन्दे हैं जो शक्तिमान की छोटी मगर मोटी बातों को कबका भूल गया है, ये तो दोपहर की पहली किरण Barney Stinsion की नज़रों से देखता हैं। इनके सामने Metallica को Metal कहने की जुर्रत न करिएगा, ये आपके हलक से जबान निकल लेंगे। वो अलग बात है की उन्हें 'मिले सुर मेरा तुम्हारा ' के गायक का नाम भी नहीं पता होगा, अरे लेकिन इत्ता पुराना गायक ... याद कौन रखे भईया और भी बहोत काम हैं।

अरे आप तो अभी भी मुश्कुराए जा रहे हैं। देखिये आप मुझे  नर्वस कर रहे हैं , पता नहीं क्यूँ, लेकिन कर रहे हैं।