Wing Up

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Monday, 16 September 2013

कल आना कृष्णा

आज मैंने एक सिक्का ऊपर उछाला. ऐसे ही बिना किसी वजह. मैंने सिक्का उछालने से पहले खुद से कोई सवाल भी नहीं पुछा. बस उछाल दिया. ये जानने के लिए की क्या मैं बिना किसी पहलु को चुने हुए रह पाता हूँ या नहीं. सिक्के के हवा में जाते ही मुझे ऐसा लगा की किसी ने मेरे ऊपर बन्दूक रखकर किसी एक साइड को चुनने के लिए मजबूर कर दिया हो.
इतने सालों से इस भीड़ भाड़ वाली materialistic दुनिया में दो में एक , तीन में दो चुनते चुनते हमारी आदत बन गई है चुनाव करने की. कई बार हमारे फैसले चुनाव की प्रक्रिया में ही फंसे रह जाते हैं और इससे तंग आकार हम एक पहलु चुन लेते हैं बिना ज्यादा सर दर्द कराए. कई बार ये फैसले बस ऐसे ही लिए जाते हैं की - शुक्ला जी ने भी तो यही चुना है, और आदमी भी भले हैं. बस लें या मेट्रो लें, कोल्ड ड्रिंक लें या लस्सी लें, Chinese आर्डर करें या Italian, पैसे वाली जॉब करें या पसंद वाली, माँ की सुने या बीवी की... ऐसे सैकड़ों फैसले करने होते हैं तो मालिक दिमाग कहाँ तक खराब करे एक बेचारा 206 हड्डियों वाला इंसान. बात भी सही है.
लेकिन ये वो समाज नहीं है जो कृष्णा ने सोचा था. ऐसा समाज जो अपने फैसलों को अपने उसूलों को परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके. ऐसा समाज जो शांति बनाये रखने में तो विश्वास रखे लेकिन साथ ही अपने ऊपर आई एक आंच पर उसी अनुसार कठोर फैसले भी कर सके. वो समाज जो एक भीड़ से ना बनी हो. जो ऐसे इंसानों का समूह हो जहाँ सभी अपने विचारों और फैसलों को रखने का हुनर जानते हों. जो भीड़ में उनके भीड़ में खड़े एक बच्चे को सिर्फ इसलिए न रौंद दें क्यूंकि वो उनके कौम का ना हो. भीड़ की सोच हमेशा छोटी होती है.किसी एक सोच पे केन्द्रित. वो अच्छी हो या बुरी. भीड़ को इस बात से फर्क नहीं पड़ता.
कृष्णा की भगवद्गीता किसी एक पहलु को चुनने की बात नहीं कहता. वो कहता है दो अलग अलग शब्दों को साथ में लेकर चलने की कला को. दो शब्द. भगवद और गीता. एक तरफ जहाँ भगवद हमें प्रेम, सौहाद्र, शांति और सम्पन्नता की बात करती है वहीँ गीता नफरत, युद्ध, कठोर फैसले और दुखों को दिखाती है. भगवद्गीता इन दो पहलुओं को एक साथ बिना किसी चुनाव के अपने जीवन में अपनाने की बात करती है.
गाँधी और Russell जैसे लोगों ने जहाँ सिक्के के एक पहलु को अपनाया वहीँ हिटलर और Mussolini जैसे लोगों ने दुसरे को. दोनों ही सैधांतिक रूप से गलत थे.
ये बात जितनी सच है की हर मुद्दे को युद्ध से या कठोर फैसले से नहीं निपटाया जा सकता उतनी ही ही ये बात भी की कई बार युद्ध ना करने में परिस्थितियां पहले से भी बदतार हो सकती हैं. इतिहास पर नजर डालें तो हमें एक ही trend नज़र आएगा. हम पहले शांतिप्रिय रहे, फिर किसी ने हमपे हमला किया, चुकी हम शांतिप्रिय हैं तो हमने हिंसात्मक तरीका नहीं अपनाया और हमने उन्हें राज़ करने दिया, फिर जब परिस्थितियां बिगड़ी तो हमने हथियार उठाया और अपनों के लिए अपनों से भी लड़ना हुआ तो लड़े.
गांधी की माने तो महाभारत कभी हुआ ही नहीं. उनके विचार से महाभारत कोई सांसारिक युद्ध नहीं थी वो सिर्फ अपने अन्दर चल रही बुराई और अच्छाई के बीच की द्वन्द थी. मेरा मानना है की अगर ऐसा है भी तो अपने अन्दर की बुराइयों को मारने के लिए हमें ही आगे बढ़कर युद्ध छेड़ना होगा. एक माँ भी अपने बच्चे को सिर्फ लाड प्यार से नहीं पालती , वो भी कई बार कठोर फैसले करती है जिससे उसके बच्चे को अच्छी और बुरी बातों मे संतुलन बनाना आजाये.

कुछ दिनों पहले निर्भया केस का फैसला हुआ. सभी दोषियों को उनके जघन्य अपराध के अनुकूल सजा हुई.
अगर गाँधी को follow करें हम तो हमें कोई अधिकार नहीं किसी की जान लेने की, उनके उसूलों पे चलते तो उन मुजरिमों को कठोर से कठोर सजा तो मिलती लेकिन फांसी नहीं. इसके विपरीत अगर हम नाज़ी या हिटलर के उसूलों की बात करें तो इस कुकृत घटना के सभी लोगों को जिनपर अपराध सिद्ध होना अभी बाकी था, उन्हें भी मौत से कम सजा नसीब नहीं होती. दोनों ही situation इंसानियत के लिए किया गया एक immature फैसला होगा.

शब्द बहुत ही छोटा है - न्याय !!! भले ही वो किसी सामाजिक बुराई के विरुध या मानसिक बुराई के खिलाफ हो.. दूसरों के लिए हो या अपनों के लिए, ये हमेशा एक तर्कपूर्ण और भावनात्मक ठहराव मांगता है. कोई फैसला भावनात्मक बहकावे या सामाजिक दबाव में नहीं होना चाहिए. स्तिथियाँ जितनी जटिल होंगी उनपे फैसला लेना उतना ही मुश्किल होगा और उसके लिए मानसिक ठहराव और विचारों का गहरापन होना उतना ही ज़रूरी होगा.

तब जाकर हम कहीं कह पाएंगे की हमारे बीच कृष्ण आज भी मौजूद हैं.. हमारे अन्दर.. हमारे हर फैसले में.. हमारे लिए लड़ने के लिए नहीं बल्कि हमारा मार्गदर्शन करने के लिए. फिर किन्ही कौरवों को हराने के लिए. फिर किसी धर्म-युद्ध में  सच्चाई के लिए अपनों से लड़ने के लिए...

10 comments:

  1. Kahan se sochte ho bhai ye sab..hats off!! :)
    -Rajat

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  2. good thought..... and better expressed.....

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  3. butiful thot nd vry awakening :) :)
    - Shikha

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  4. a well served food for thought

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  5. यार समाधान सिर्फ सोच को मारकर ही संभव है..क्यूकी ये जो हमारे बीच से ही पनपने वाले ये कुकर्मी उस कृत्य के एक मिनट पहले तक एक आम आदमी होते हैं तो अगर वो आदमी राक्षस है तो ज्यादा महेत्व्पूर्ण ये है कि हम उस सोच को मिटाने के लिए कुछ करें उसकी जान ले के भी हम दूसरा पाप ही कर रहे हैं क्युकी उसमे हम उनसे जुड़े उन मासूम परिवारों के साथ अन्याय कर रहे हैं जिनका उसमे कोई योगदान नहीं था।
    जड़ खत्म करनी ज़रूरी हैं शाखाएं काटके सिर्फ हम मन ही बहला सकते हैं।
    और बहुत ही उम्दा विषय और उतनी ही संजीदगी से उसका स्पष्टीकरण!बहुत बढ़िया।

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  6. kaafi gehri soch ke sath likha hai bhai..
    great work :)

    -Mohit Bhutani

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  7. This comment has been removed by the author.

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  8. commendable...sochne pe majboor kr dia tune. Seriusly frm whr do u get such thots man...:)
    Great Work..wonderfully expressed!!!
    Thumbs Up

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  9. Sikke ne to poora article baandh dia...truly thought provoking it is...hum sab me krishna hai...loved the line

    pulkit agarawal

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