आज मैं ऐसे ही बाजार में टहल रहा था. मैं एक स्टोर में घुसा जहाँ सस्ते में quoted tee shirts मिल रही थीं. वहां मैं जैसे ही अन्दर पंहुचा एक आवाज मेरे कानों में पड़ी " भैया कोई दूसरी दिखाइये, इसमें Che Guevara की पिक्चर अच्छी नहीं आई है." मैं पलटा तो ये आवाज एक पतले से बन्दे के अन्दर से आरही थी जिसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था की अगर इसे अफ्रीका भेज दिया जाए तो इसे वहां भी BPL कार्ड मिलने में कोई तकलीफ नहीं होगी.
मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो मैं उसके थोडा और करीब गया. मैं उससे पूछना चाहता था की छोटू- जानते भी हो की ये कौन है या बस यूँ ही. लेकिन मैंने सोचा की अपनी इज्ज़त अपने हाथ में है इसलिए मैंने थोड़ी politeness दिखने का सोचा. मैंने उससे पुछा की ये है कौन ज़रा मुझे भी बताओ !!. उसने थोड़ी हसी दबाते हुए कहा.. "pheew .. आपको नहीं पता?? ये एक Mexican revolutionist थे. पढ़े लिखे तो लगते हैं आप."..
मुझे थोड़ी बेईज्ज़ती महसूस हुई. लेकिन कोई बात नहीं. मैंने थोड़ी सांस ली थोडा मुस्कुराया और उससे दूसरा सवाल पूछने के लिए खुद को तैयार किया. "क्या इनके बाद कभी कोई revolution नहीं हुआ? क्या कोई और हीरो नहीं हुआ पूरी दुनिया में इनके बाद? इनकी ही फोटो वाली शर्ट क्यूँ?". उसने कहा " बड़ी ऊल-जलूल बातें करते हैं आप, सभी Guevara ही पेहेनते हैं, इसलिए मैं भी लेने आया हूँ. फैशन का ज्ञान आपको नहीं है लगता है." ये कहकर उसने सामान लिया और चलता बना. लेकिन पीछे छोड़ गया एक सवाल. सवाल जो मेरे दिमाग में popcorn की तरह उछलकूद कर रहा था.
मैं खुद बहोत बड़ा फैन हूँ Che Guevara का. मुझे उनके सिद्धांत पसंद हैं. एक सोच. एक इरादा.उसपर चलने का जूनून. लेकिन मुझे आपके बारे में शक है थोडा. हो सकता हैं की मैं गलत हूँ. लेकिन कहीं आप भी वैसे तो नहीं. जिसे Che Guevara एक चेहरा लगता है जिसे अपने tee shirt पर होने पर आप बुद्धिजीवी से लगेंगे इन बेवकूफों के बीच. क्या आपको पता है की ये है कौन. इन्होने अपने देश के लिए क्या किया. चलिए छोडिये इस सवाल को. किसी एक revolutionist का नाम ही बता दीजिये. दुनिया के ना सही अपने देश के ही किसी बन्दे का नाम लेलिजिए.
ओह...शायद मैंने कुछ ज्यादा ही 'उल ज़लूल' सवाल पूछ दिए.
लेकिन my dear friend विश्वास करिए आप भी इसी दौड़ का हिस्सा बन रहे हैं. Revolution आज एक पोस्टर पर बनी एक खूबसूरत पेंटिंग के बगल में लिखा एक शब्द बन कर रह गया है. आप किसी भी चीज़ को सिर्फ इसलिए follow करते हैं क्यूंकि दुसरे लोग उन्हें follow करते हैं. दुसरे देशों को छोडिये क्या आपको याद अहि की शुभाष चन्द्र बोसे जैसे लोग भी हमारे देश में हुए हैं जिन्होंने revolution जैसे शब्दों को अलग ही मायने दिए. लेकिन हमें वो याद नहीं हैं. हम उनके पोस्टर्स नहीं लगाते. हम उनकी बातें नहीं करते. और हम कर भी नहीं सकते. कैसे करेंगे. ना वक़्त है मेरे पास की उनके बारे में जानें और ना ही सौरव और कुलकर्णी के पास उनकी शक्ल वाली शर्ट ही है . भाई अच्छा थोड़ी लगता है.
मैं revolution की तो बात ही नहीं कर रहा. वो काफी भारी शब्द है. मैं बस आपकी और मेरी बात कर रहा हूँ. क्या हम और आप किसी भी जिंदगी के छोटे या बड़े फैसले खुद अपने दिमाग से कर पा रहे हैं. या हमारा हर फैसला जाने अनजाने दूसरों के फैसलों से प्रभावित हो रहा है. हमें इस बात को समझना चाहिए की दूसरों के चुनाव या फैसले उसकी खुद की परिस्थितियों के अनुकूल थी. ये परिस्थितियां आपके लिए पूरी तरह अलग होसकती है. जो आपके फैसलों पर भी प्रभाव डालेंगी. इसलिए आपका अंधी भीड़ में भागना थोडा जोखिम भरा हो सकता हैं. Revolution ऐसे रस्ते पर जाने को कहते हैं जहाँ आप खुद को पाते हैं. वो आप जो आपकी परिस्थितियों के अनुकूल हो. जहाँ आप अपनी जिन्दगी का कोई भी फैसला खुद के लिए करते हैं ना की दूसरों को दिखाने के लिए. एक बार आपने खुद को समझ लिया , मुझे लगता है किसी che Guevara या कम से कम उनकी tee shirt की ज़रुरत आपको नहीं ही पड़ेगी.
Happy Revolution
Sunday, 25 August 2013
che 'YOU' Guevara
Thursday, 22 August 2013
One Dollar Rupee
आज़ादी के वक़्त जब हमारे economists ने हमारे देश में
समानता की बात की थी तब उनकी इच्छा हमारे देश में अमीरों को सडको पर लाना नहीं था. वो बस इतना चाहते थे की हमारे देश की कमज़ोर और ग़रीब जनता अपने जीवानसैली में
थोड़ी बढ़ोत्तरी लाए.
चलिए एक बहोत ही उलटी situation
imagine करते हैं. एक ऐसा देश जहाँ अमीर और
अमीर हो रहे हैं और ग़रीब और ग़रीब. यही एकलौती सबसे बड़ी चिंता थी हमारे देश में आने
वाले समय में.
रुकिए रुकिए ..कहाँ
भागे जा रहे हैं आप... मैं कोई economics का lecture
नहीं देने वाला आपको. बस मैं एक बहोत ही छोटी सी बात share करना चाहता हूँ जो अचानक से आज मेरे जेहन में तब आई जब मैं अपनी कार में
पेट्रोल भरवाते हुए रोड के किनारे एक भिखारी को प्याज़ खाते देखा. क्या सच में वो
गरीब था या किसी राज्य का राजा जो ख़ुफ़िया तरह से अपने राज्य के लोगों को जांचने
आया है. जी हाँ मजाक ही कर रहा हूँ.
इस वक़्त हमारे देश में इन दोनों से भी अलग situation आ गई है. जरा सोचिए. आज ना तो कोई अमीर और अमीर बनने लायक बचा है और ना ही कोई ग़रीब
और ग़रीब. अरे मैं बस इमानदार अमीरों की बात कर रहा हूँ. और
ग़रीब..common...वो 5
रूपए में अपना पेट भर तो रहे हैं अब क्या जान लोगे उनकी.
वैसे जरा situation समझिए. हमारे पास आज सभी चीजें एक दाम पर मिल रही हैं. प्याज़, पेट्रोल, दारु.
प्याज़ - आपनी जमीनी
ज़रुरत
पेट्रोल - आपके आराम
का सामान
दारु - आपके ऐयाशियों
का सामान
अब आप समझ सकते हैं की
ये economists
आपसे चीख चीख कर जो कहना चाह रहे हैं. जी हाँ!!! अब आपके
समझ में आया ना. या तो आप अपना बहुमूल्य पैसा अपने ऐयाशियों में उडाएं, अपने आराम की जिंदगी जिसका आपने सपना देखा था उसमे उडाएं या
फिर अपनी जिंदगी की सतही ज़रूरतों में उड़ाते उड़ाते निपट ही जाएं आप.
ये आपको हर माल 10 रूपए जैसा लग सकता है. लेकिन विश्वास करिए ये ही आज का समानता का उद्देश्य रह
गया है.
आज हम डॉलरों की बात
करते हैं...आज 62
रूपए कल 64.5.. मैं कहता हूँ फालतू की mathematics में पड़े हो दोस्त, ज़रा पाउंड्स पे नज़र तो
दौडाओ वो तो हमारे mathematics की सारी झोल को खत्म करने में
लगा है. हाँ भाई 100
रूपए को एक पाउंड में बदलना 85 रूपए
को बदलने से कहीं ज्यादा कम सर दर्द का काम है.
मेरे कुछ दोस्त आज से
कुछ साल पहले UK
shift हुए थे. आज उनकी जॉब की salary में भले ही कोई बढ़ोत्तरी न हुई हो लेकिन जब मैं यहाँ से देखता हूँ तो उनकी मासिक
आय लगभग 20% बढ़ी हुई दिखती है...आपको नहीं दिख रहा है क्या. मुझे विश्वाश है की जिस दिन आपको दिखेगा आपका विश्वास Brain-Drain जैसे imaginary
शब्दों से उठ जाएगा.
अब समाज के बड़े बड़े
विचारक इस imaginary
concept पर कोई comment क्यूँ नहीं करते.
कल मेरे एक दोस्त से
बेहेस हो गई. उसने कहा की क्यूँ हम पिछले कुछ दिनों से सारा काम छोड़कर इस बढती
" रूपए की इज्ज़त " पर ही लम्बी लम्बी कहानियां गढ़ रहे हैं. क्या इससे प्याज़ की कीमतों में कमी आएगी या फिर डॉलर की कीमत में कोई कमी. उसका कहना मुझे कहीं से भी गलत नहीं लगा.
आज भी हमारे देश की 80% जनता " क्यूं " जैसे सवालों से अपना पेट नहीं भर्ती. उसे आज भी
अपनी जिन्दगी चलाने के लिए " क्या और
कैसे " जैसे सवालों से जूझना पड़ता है. और
अगर उसने इस सवाल का जवाब जैसे तैसे दे भी दिया फिर भी " क्यूँ " जैसे
सवाल के जवाब देने की ना तो हमने शिक्षा दी है और ना ही अधिकार.
अरे मैं कोई बड़ी बातें
नहीं कर रहा. मुझे आज बुरा बस ये लगा की आज mess में मुझे सलाद में प्याज नहीं दिखे. मैं सलाद में प्याज के ना होने पर जब इतना
कुछ कह सकता हूँ अपनी भड़ास निकाल सकता हूँ , तो ज़रा उनका सोचिए जो खाने की प्लेट से एकलौते प्याज़ के चले जाने पर भी कुछ
नहीं कह सकते, अपनी भड़ास नहीं निकाल सकते. यकीन मानिए आप ग़रीब नहीं हैं.
Thursday, 15 August 2013
State of Independence
Independence day. एक ऐसा दिन जिसकी ख़ुशी हर एक भारतीय को होती है। कुछ को ज्यादा, कुछ को कम। कुछ अन्दर से खुश होते हैं तो कुछ बस दूसरों की ख़ुशी के लिए। कुछ इसे सुबह जल्दी जग कर मनाते हैं तो कुछ देर तक सो कर।
ख़ुशी हो भी क्यूँ ना, कम से कम एक दिन तो हमें मिलता है जिस दिन हम हर तरह से खुद को तस्सली दिला सकते हैं की भईया सच में हम आज़ाद हैं। वरना कहाँ इस बेरहम भाग दौड़ वाली जिंदगी में इस बात का एहसास हो पाता है। दिन भर देश के एक बड़े शहर के छोटे से कोने में बहोत ही तेजी से पूरी दुनिया से जोड़े रखने वाली मशीन के सामने बैठे रहने पर , कहाँ इस आज़ादी का लुत्फ़ उठा मिलता है।
इसमें कुछ गलत नहीं है। हमें पूरा हक है की हम जैसे चाहें वैसे अपनी स्वतंत्रता को enjoy करें। बात बस इतनी सी है की क्या हमें पता है की हमें अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कैसे करना है या हम कैसे कर सकते हैं और फिर भी नहीं करते। हम आज भी इंतज़ार करते हैं की कोई आकर हमारी बात आगे रखे। कोई आए जो हमारी दिक्कतों और परेशानियों का solution ढूंढें। हमें कुछ बोलने, कुछ चित्रित करने,कुछ सोचने से पहले भी इस बात का डर होता है की कहीं ये system हमारे सभी भावनाओं को दबा ना दें। सिर्फ इसी इसी डर से हम अपनी बची खुची इच्छाएँ भी दबा देते हैं। हम भूल जाते हैं की इस व्यवस्था की एक एक कड़ी हमारी चुनी हुई है। इसकी एक एक नीव हमारी मजबूती और योगदान को दिखाती है न की हमारी कमजोरी और असहाय हालत को।
हम भूल गए हैं की हमने ये कही सुनी आज़ादी कैसे, किन मुश्किलों में पाई है। इसमें हमारी कोई गलती नहीं है। हमें आज़ादी मिली ही उपहार में है। हमने कहाँ किसी नेहरु गाँधी को सुना है। हम तो ना थे 1947 की उस पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में जिसमे सैकड़ो लोग मारे गए थे। उन दंगो में हमारे मकान और दुकानें नहीं जलाई गई थी।
भईया.. उपहार तो हमें आज भी बखूबी याद है, बस उपहार देने वालों को भूल गए हैं। ज्यादा नहीं बस थोडा सा। और उपहार की कीमत थोड़ी पूछी जाती है देने वालों से. सो हमने भी कभी ये जानने की गुस्ताखी ना की। इसमें गलत तो कुछ ना था।
हमारे ऐसे होने का एक बड़ा कारण ये है की हम आज़ादी संभाल नहीं पा रहे हैं। लेकिन ये बात हम कभी नहीं मानेंगे। हम कभी नहीं मानेंगे की हम आज भी अंदर से गुलाम है। गुलाम अपने ही लोगों के हाथों। अपनी ही भावनाओं के हाथो। हम आज अपने सपनो के पीछे नहीं भागते। हम किसी और के पीछे भागते हैं जो किसी और के पीछे भागता है उसके सपने पूरे करने के लिए। क्यूंकि हम अपने पसंद का काम सिर्फ इसलिए नहीं करते क्यूंकि किसी अनजान बन्दे ने हमसे कभी कह दिया था की ये काम बेकार है, या सामाजिक रूप से तिरस्कृत। ये वही लोग होते हैं जो समाज में समानता की बात करते हैं। क्यूंकि हम उसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं जिसे पता भी नहीं की उन्हें चाहिए क्या। जो रोज सुबह जगता है और हफ्ते के पांच दिन किसी और देश की दिक्कतों और समस्यायों को एक फ़ोन पर सुलझाता है।
हम अपनी ताकत भूल रहे हैं। हमे इस बात का एकसास नहीं है की जो इंसान फोन पर दुसरे मुल्क की दिक्कतों का निवारण कर रहा है वो व्यक्तिगत रूप से इस देश की तरक्की में कितना योगदान दे सकता है।
हमें देश की तरक्की में अपनी हिस्सेदारी पहचानने की ज़रुरत है। और इसमें अपना योगदान देने की भी। हमे खुद को इस बात का एहसास करवाने की ज़रुरत है की संवैधानिक, सामाजिक और मानसिक स्वतंत्रता में क्या अंतर है। और इन तीनो के बिना किस तरह से हमारी आजादी बस नाम मात्र है।
dependent होकर अपने आप को indepentent कहना और अपने ही जैसे दुसरे dependents को इस भ्रम में रखना मुझे नहीं लगता हमारे लिए ज्यादा हितकर होगा।
दो स्वतंत्रताएं तो शायद हमें हमारे पूर्वजों ने दे दी है। बाकी सिर्फ मानसिक स्वतंत्रता है। उम्मीद करूंगा हमें जल्द ही वो भी हासिल हो। आमीन।।
ख़ुशी हो भी क्यूँ ना, कम से कम एक दिन तो हमें मिलता है जिस दिन हम हर तरह से खुद को तस्सली दिला सकते हैं की भईया सच में हम आज़ाद हैं। वरना कहाँ इस बेरहम भाग दौड़ वाली जिंदगी में इस बात का एहसास हो पाता है। दिन भर देश के एक बड़े शहर के छोटे से कोने में बहोत ही तेजी से पूरी दुनिया से जोड़े रखने वाली मशीन के सामने बैठे रहने पर , कहाँ इस आज़ादी का लुत्फ़ उठा मिलता है।
इसमें कुछ गलत नहीं है। हमें पूरा हक है की हम जैसे चाहें वैसे अपनी स्वतंत्रता को enjoy करें। बात बस इतनी सी है की क्या हमें पता है की हमें अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कैसे करना है या हम कैसे कर सकते हैं और फिर भी नहीं करते। हम आज भी इंतज़ार करते हैं की कोई आकर हमारी बात आगे रखे। कोई आए जो हमारी दिक्कतों और परेशानियों का solution ढूंढें। हमें कुछ बोलने, कुछ चित्रित करने,कुछ सोचने से पहले भी इस बात का डर होता है की कहीं ये system हमारे सभी भावनाओं को दबा ना दें। सिर्फ इसी इसी डर से हम अपनी बची खुची इच्छाएँ भी दबा देते हैं। हम भूल जाते हैं की इस व्यवस्था की एक एक कड़ी हमारी चुनी हुई है। इसकी एक एक नीव हमारी मजबूती और योगदान को दिखाती है न की हमारी कमजोरी और असहाय हालत को।
हम भूल गए हैं की हमने ये कही सुनी आज़ादी कैसे, किन मुश्किलों में पाई है। इसमें हमारी कोई गलती नहीं है। हमें आज़ादी मिली ही उपहार में है। हमने कहाँ किसी नेहरु गाँधी को सुना है। हम तो ना थे 1947 की उस पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में जिसमे सैकड़ो लोग मारे गए थे। उन दंगो में हमारे मकान और दुकानें नहीं जलाई गई थी।
भईया.. उपहार तो हमें आज भी बखूबी याद है, बस उपहार देने वालों को भूल गए हैं। ज्यादा नहीं बस थोडा सा। और उपहार की कीमत थोड़ी पूछी जाती है देने वालों से. सो हमने भी कभी ये जानने की गुस्ताखी ना की। इसमें गलत तो कुछ ना था।
हमारे ऐसे होने का एक बड़ा कारण ये है की हम आज़ादी संभाल नहीं पा रहे हैं। लेकिन ये बात हम कभी नहीं मानेंगे। हम कभी नहीं मानेंगे की हम आज भी अंदर से गुलाम है। गुलाम अपने ही लोगों के हाथों। अपनी ही भावनाओं के हाथो। हम आज अपने सपनो के पीछे नहीं भागते। हम किसी और के पीछे भागते हैं जो किसी और के पीछे भागता है उसके सपने पूरे करने के लिए। क्यूंकि हम अपने पसंद का काम सिर्फ इसलिए नहीं करते क्यूंकि किसी अनजान बन्दे ने हमसे कभी कह दिया था की ये काम बेकार है, या सामाजिक रूप से तिरस्कृत। ये वही लोग होते हैं जो समाज में समानता की बात करते हैं। क्यूंकि हम उसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं जिसे पता भी नहीं की उन्हें चाहिए क्या। जो रोज सुबह जगता है और हफ्ते के पांच दिन किसी और देश की दिक्कतों और समस्यायों को एक फ़ोन पर सुलझाता है।
हम अपनी ताकत भूल रहे हैं। हमे इस बात का एकसास नहीं है की जो इंसान फोन पर दुसरे मुल्क की दिक्कतों का निवारण कर रहा है वो व्यक्तिगत रूप से इस देश की तरक्की में कितना योगदान दे सकता है।
हमें देश की तरक्की में अपनी हिस्सेदारी पहचानने की ज़रुरत है। और इसमें अपना योगदान देने की भी। हमे खुद को इस बात का एहसास करवाने की ज़रुरत है की संवैधानिक, सामाजिक और मानसिक स्वतंत्रता में क्या अंतर है। और इन तीनो के बिना किस तरह से हमारी आजादी बस नाम मात्र है।
dependent होकर अपने आप को indepentent कहना और अपने ही जैसे दुसरे dependents को इस भ्रम में रखना मुझे नहीं लगता हमारे लिए ज्यादा हितकर होगा।
दो स्वतंत्रताएं तो शायद हमें हमारे पूर्वजों ने दे दी है। बाकी सिर्फ मानसिक स्वतंत्रता है। उम्मीद करूंगा हमें जल्द ही वो भी हासिल हो। आमीन।।
Happy brthday independents...
Friday, 9 August 2013
शायद कल

हम इंजीनियरिंग स्टुडेंट्स को अक्सर मेस में सड़ा खाना ही नसीब होता है. और खास कर दिल्ली जैसे शहर में तो रोज बाहर खाना हम जैसे afford भी नहीं कर पाते. ऐसा नहीं है की हमारे घर वाले पैसे नहीं देते हमें. वो तो बस ऐयाशियों
में उड़ जाते हैं. सो हम अक्सर रात को खाने के बाद दिल्ली मेट्रो में कुछ ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने निकल पड़ते. भईया दिल्ली है ये... यहाँ रात आठ बजे भी रौनक अपने सातवें आसमान पर होती है.
रात में अपने assignment
के बोझ तले दबा ये इंजिनियर जब सुबह कुछ देर से उठा तो पूरे हॉस्टल
का माहौल कुछ बदला सा था. ऐसा लग रहा था की किसी exam
का रिजल्ट अचानक से आ गया हो. उन कुछ मिनटों में मेरे ऊपर क्या गुज़री होगी ये शायद आपको बताने की ज़रूरत नहीं है.
मैं बहोत कुछ समझ पाता
तबतक एक
बंदा एक न्यूज़
पेपर का front पेज लेकर मेरे पास आया. मैं पढ़ पाता तबतक उसने सारी कहानी एक सांस में सुना दी. उस लड़की के बारे में, जो 10
दिन तक मीडिया की TRP बढा कर इस दुनिया से जाने वाली थी.
और उन इंसानों के बारे में भी जो जाने किस नस्ल के थे. शायद इंसान भी ना हों. क्या पता.
करीब आधा घंटा इसपर देने के बाद मैं कॉलेज के लिए निकला. वहां भी यही हाल.
लंच पर भी. सब की जबान पर एक ही बात थी. आज लोगों में गम था गुस्सा था. सभी इंडिया गेट जाना चाहते थे. सभी अपना आक्रोश ज़ाहिर करना चाहते थे. लेकिन आज लोग भटके हुए थे. डरे हुए. उन्हें ये समझ नहीं आरहा था की गुस्सा किसपर उतारें. हमारी व्यवस्था पर , हमारे समाज पर या हमारे लड़के लड़कियों पर. और सबने गुस्सा उतरा. किसी एक पर नहीं.
सभी पर उतरा.
लेकिन सवाल अभी भी वही था... सामाजिक उत्पीडन तो हुआ था. लड़कियों का और लड़कों का. वो भले ही शारीरिक हो या मानसिक. लड़कियाँ अब रात में अपने घरों से निकलने से डरने लगीं थी. वो अपने साथ के पुरुषों से घबराने लगी थीं. लड़के अब किसी लड़की को देखने से पहले सोचते थे. किसी हमशक्ल के धोखे में अब कोई लड़का किसी लड़की को नाम से नहीं पुकारता था. बाप अपनी बेटी को दिल्ली से बाहर पढाना चाहते थे. जिनकी बेटियां पहले से दिल्ली में थीं उनके डॉक्टरों की कमाई उनके blood pressure की तरह बढ़ने लगे थे. लड़के किसी अनजान लड़की की मदद करने से घबराने लगे थे. उन चौपालों पर अब लड़कियों की बातें नहीं हुआ करती. अब कोई 'देख भाभी आज पीले सूट में आई हैं' नहीं कहता था. तेरी-वाली मेरी-वाली पर शर्तें नहीं लगती अब. Ladies कम्पार्टमेंट में कोई मजनू किसी का पीछा करते नहीं घुसता था. अब हमने भी खाने के बाद ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने की अपनी आदत को खत्म कर दिया था. दिल्ली में रौनक तो थी लेकिन डरी, सहमी और असहाय.
व्यंग लिखने की सोचा था ..लेकिन लिखा नहीं गया
..शायद ठंढी हवा खाने
की आदत अभी पूरी तरह गई नहीं. शायद ये निगाहें अभी भी रात के आठ बजे दिल्ली के मेट्रो में बेबाक,
बेख़ौफ़ और बिंदास रौनकों के उम्मीद में हैं. शायद अभी हमने उमीदें रखनी खत्म नहीं की है. शायद ...
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