Wing Up

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Monday, 28 October 2013

Boiled egg या Fried egg ??

आपको लग सकता है की ये क्या है. सवाल तो कभी ये था ही नहीं. सवाल तो हमारे बुजुर्ग हमेशा से ये पूछते आये हैं की पहले मुर्गी आयी या अंडा. आपको लग सकता है की मैं पागल तो नहीं हो गया !! शायद हाँ , शायद ना.
बात ऐसा है की मुझे बुजुर्गों वाले सवाल के जवाब से ज्यादा ख़ुशी मेरे इस सवाल के जवाब से मिलती है. और आप ऐसा मत सोचिये की ये सवाल मुझसे किसी नेशनल इंस्टिट्यूट के सेमीनार में पुछा गया था और उसके जवाब से मुझे नोबेल पुरस्कार मिलने वाला है, जो मैं इतना खुश हो रहा हूँ. ये सवाल तो मुझसे " तूफानी अंडा शॉप " के पप्पू भईया ने पुछा था. और मैंने बस प्यार से उन्हें कहा था " आज Boiled में ही समेट दे भाई !! " .


आप बिलकुल सही हैं. ना तो मैंने कुछ ऐतिहासिक काम किया है और ना ही कुछ ऐसा जिससे मुझे इतनी ख़ुशी होनी चाहिए. लेकिन फिर भी मैं खुश हूँ. खुश इसलिए भी क्यूंकि इस वक़्त मुर्गी और अंडे के बीच सदियों से चल आरही लड़ाई में जीत किसी की भी हो हमारे 'आज' पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. मैं एक ऐसी ख़ुशी के लिए जिसके होने ना होने की कोई गारेंटी भी नहीं के लिए अपनी छोटी सी ख़ुशी कुर्बान नहीं करना चाहता.


हम आज यही कर रहें हैं ..बड़ी खुशियाँ , बड़ी महत्वकांक्षा के पीछे भागते हुए छोटी खुशिया, छोटी ज़रूरतों पर हमारा ध्यान नहीं जाता. आपके लिए ये समझना बहोत ही ज़रूरी है की छोटे पड़ाव उतने ही ज़रूरी हैं जिनती एक बड़ी मंजिल.

ये छोटी छोटी खुशियों के पल हमारे लिए एक Atom के ऊपर एक छोटे से Photon energy pouch की तरह काम करती हैं. ऐसा एक छोटा सा pouch जो आपको stabilize भी कर सकते हैं और destabilize भी. और अजीब बात ये है की इस stable state में पहोचने के लिए आपको किसी बड़े एनर्जी पैकेट को पाकर ऊँचे लेवल पर जाने की भी ज़रुरत नहीं है. और अगर आप किसी ऊपर के लेवल पर पहोच भी जाते हैं तो भी आपको उन खुशियों को बांधे रखने के लिए इन छोटी छोटी खुशियों के photons को संजोये रखना होगा.

आज बड़े शहरों में बड़ी कंपनियों , MNCs के बुद्धिजीवी हमारे इन महत्वकान्छओं को काफी अच्छी तरह आँका है और इसका इस्तेमाल अपने फायदों के लिए हमारे ही खिलाफ किआ है. थोडा सा बोनस , थोड़े से तोहफे, थोड़े से वादों देकर वो हमसे ये छोटी छोटी खुशियों की झोली मांग लेते हैं और हम भी इसे बड़ी आसानी से दे देते हैं. इस छोटी झोली की बड़ी कीमत का अंदाज़ा हमें आगे चल कर होता है जब हम भीड़ में इतने आगे निकल जाते हैं की वापस आना मुश्किल हो जाता है.

बड़ी खुशियों के पीछे जाना बुरा नहीं है, बल्कि समाज के evolution के लिए ज़रूरी भी है. लेकिन इन छोटी खुशियों की कुर्बानी देकर नहीं. हम कहीं बड़े सवालों के जवाब की खोज में कहीं इतने व्यस्त ना हो जाएँ की छोटे सवाल आपसे मुंह ही मोड़ लें.

अब ये हमारे ऊपर है इस मुर्गी-अंडे के जवाब के वादे में क्या हम सामने रखे boiled egg और fried egg के option को ही खत्म कर देते हैं या मुर्गी को थोडा इंतज़ार करने को कह कर छोटी खुशियों को हज़म की शाजिश में लग जाते हैं. सवाल और जवाब हमेशा से आपके सामने ही था और आगे भी रहेगा , मुद्दा ये है की आप चुनते किसे हैं.

मैं भी किन चक्करों में पड़ गया... पप्पू यार !!! Boiled लगाया नहीं अभी तक....


Ps. Happy vacations ( if u have any )

Tuesday, 8 October 2013

मुझसे पहले मैं

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन.
सुबह का वक़्त था. मैं ट्रेन की अपनी बहोत ही " खुशनुमा " सफ़र खत्म कर के बाहर आ रहा था. "भईया, कहीं छोड़ दूं" एक बहोत ही बूढ़ा, शायद दो दिन से भूखा जो खुद खड़े होने तक की जद्दोजहद कर रहा था, वो मुझ जैसे भारीभरकम शरीर को ढोने की बात कर रहा था. "शुक्रिया दोस्त". बस यही निकला मेरे मुंह से और मैं आगे बढ़ गया.

शुक्रिया दोस्त..??... क्या चल रहा था मेरे दिमाग में. इसबार शायद कुछ भी नहीं. कम से कम उसकी लाचारी,बेबसी तो कत्तई नहीं. मेरे दिमाग में कोई चल रहा था तो वो मैं था. मैं, जो कुछ साल पहले इसी स्टेशन से उतरा था, इन्ही कमज़ोर , कर्कस और घुटन भरी आवाज़ों के बीच से गुज़रता हुआ. नफरत और घृणा से भरा, ऐसे अप्रिय शब्दों का प्रयोग करता हुआ जो मैं खुद अपने लिए नहीं सुनना चाहूँगा.


दिल्ली मेट्रो स्टेशन.
सुहानी शाम. दोस्तों के साथ. आज अपूर्व का जन्मदिन है. सभी उतने खुश हैं जितने exams के dates खिसकने पर भी नहीं होते. चीखते चिल्लाते हम बाहर निकलते हैं.. मेरी नज़र बाहर एक औरत, जो अपने दो साल के दिखने वाले बच्चे के साथ जो उसकी गोद में एक मांस के लोथड़े की तरह पड़ा हुआ था, पर गई. लेकिन इस बार मैं उसे अपनी जेब से पैसे निकल कर नहीं दे पाया.

क्या हो गया था मुझे...क्या चल रहा था दिमाग में. क्या अखबार का वो टुकड़ा जिसमे इस तरह के भीख मांगने वालों के गोरखधंधे के बारे में लिखा था.. या ये की आखिर ये कब तक मेरी ज़िम्मेदारी है.. इस बार आगे बढ़ते वक़्त मुझमे थोडा दुःख तो था लेकिन पश्चाताप की भावना नहीं. पिछली बार तो ऐसा नहीं था. पिछली बार तो ना वो अखबार का टुकड़ा था और न ही इतनी परिपक्वता.
 
... अजीब है ना. ये आप और हम ही हैं. एक ही समय में, एक ही परिस्थिति में, अलग अलग तरह से व्यवहार करते हुए. मैंने बस अभी इस बात का उदाहरण दिया है की हमारा दिल और दिमाग एक साथ काम करते भी हैं और नहीं भी.

जब हम छोटे होते हैं तो हमें बहोत चीज़ों का ज्ञान नहीं होता, हम अपने आस पास के environment से छोटी छोटी कड़ियाँ इकट्ठी करते हैं और उन्हें जोड़ने की कोशिश करते हैं. और जो हमारे सामने आता है उसे ही परम सत्य मान कर आगे की जिंदगी बिताने का खुद से वादा कर लेते हैं. हमें गांधी के आदर्श पसंद आते हैं, हमें खाने की बर्बादी पर गुस्सा आता है, हमें ऑटो से नहीं साइकिल से स्कूल जाना है, कपडे साफ़ और प्रेस चाहिए, रोड पर हुए गड्ढों के लिए हम भगवन को कोसते हैं, हमें हिरोशिमा पर हुए हमले दुनिया की सबसे बड़ी भूल लगती है. हम कोई सवाल नहीं करते. हम बस पुरानी चल रही भावनाओं और विचारों का आँख बंद कर पालन करते हैं.
 
हम थोड़े बड़े हुए. खुद पर थोडा शक हुआ. सवालों का भूख बढ़ा तो उन्हें पूरा करने की कोशिश में लग गए. इसका परिणाम ये हुआ की अब हम गांधीवादी नहीं रह गए, खाने की बर्बादी को ecological cycles में explain करने लगे, अब हमें साइकिल पर शर्म आती है, कपड़ों के साफ होने की ज़रुरत नहीं, रोड पर हुए गड्ढों के लिए अब हम भगवान् को नहीं नगर पालिका को कोसते हैं. अब हम हिरोशिमा पर हुए हमलों को आगे कभी ना होने वाली गलती की शिक्षा के रूप में लेते हैं. काफी कुछ बदल गया है.

हम थोड़े और बड़े होते हैं. इतने की शायद अब इससे बड़े होने की कोई गुंजाईश नहीं है. अब मैं परिपक्वता की पराकाष्ठा पर हूँ. अब सवालों की भूख नहीं है मुझे. अब जवाबों की कशमकश ही है. अब गाँधी समकालीन राजनीतिक परिस्थियों के लिए गलत और सामाजिक उत्थान के लिए अच्छे लगने लगे हैं, अब एक शादी में खाने की बर्बादी वहां काम कर रहे मजदूरों के भूखे सो जाने से ज्यादा बड़ी सजा नहीं लग रही, अब साइकिल चलाना ही स्वस्थ रहने का एक जरिया नजर आता है, कपडें साफ़ ना हों तो निकृष्टता की भावना घर करती है अब, रोड हुए गड्ढों के लिए अब नगरपालिका से ज्यादा भागवान पर गुस्सा आता है की कोई फ़िक्र भी है तुम्हे इस संसार की या नहीं, अब हिरोशिमा पर हुए हमले भले ही आगे के लिए एक शिक्षा हो लेकिन वहां खोई हुई इंसानों की जिन्दगिया अब ज्यादा अफ़सोस देती है.
 
जिंदगी वापस वहीँ आगे है जहाँ से शुरू हुई थी. वही जिंदगी जो कभी दिल से,कभी दिमाग से, कभी दोनों से तो कभी दोनों के बिना आगे बढती ही है. Chaos भले ही जिंदगी की सच्चाई भी हो और भ्रम भी, लेकिन ये आपके जिंदगी में किये गए फैसले ही हैं जो इसे रोके रखते हैं और आगे भी बढाते हैं. जिंदगी का सफ़र जहाँ शुरू होता है वहीँ खत्म भी.

Happy Cycle.

Wednesday, 2 October 2013

अरे... कौन है उधर !!!

O..NO.NO.NO….Nope… मैं कैसे !! मैं इतना छोटा हूँ अभी. इतना अपरिपक्व. मैं, मेरे विचार ना तो इतने विस्तृत हैं और ना ही अनुभवी की मैं इस बारे में कुछ लिख सकूँ.
ये ही जवाब था मेरा (और शायद आपका भी ) जब मुझसे किसी दोस्त ने कहा ... "भगवान् के बारे में लिखो."
मजाक है क्या उसके बारे में लिखना जिसे मैं मानता भी हूँ और नहीं भी. जनता भी हूँ और नहीं भी.

उसके बारे में लिखना जो वस्तु भी है और भावना भी. विश्वास भी है और अंध-विश्वास भी. जिसे आप मूर्ति माने ना माने आपकी श्रधा में कोई कमी नहीं आती. जिसे हम दुःख में भी उतना ही याद करते हैं जितना सुख में. क्या लिख सकता था मैं उसके बारे में.

मैंने उसे हमेशा एक 'सिक्के' की तरह माना है. जो खुद में दो पहलु लिए होता है. लाभ भी और हानि भी. सुख भी और  दुःख भी. खूबसूरती भी और बदसूरती भी. वो किसी एक पहलु का ना तो चयनकर्ता है और ना ही उत्तरदायी.

हमें कई बार भ्रम हो जाता है की हमारे साथ जो अच्छा हो रहा है वो ऊपर बैठा कोई इश्वर कर रहा है. वहीँ जैसे ही हमारे साथ कोई बुरा होता है हमारा विश्वास कम होने लगता है. मुझे नहीं लगता की उसपर आपके कम या ज्यादा विश्वास का कोई फर्क पड़ता होगा. अगर कोई है जिसपर फर्क पड़ता है, तो वो हम हैं.

जब हम कोई काम इस उम्मीद से करते हैं की कोई है जो हमारा साथ दे रहा है, कोई है जो हमारे साथ कोई बुरा नहीं होने देगा. उस वक़्त हम सिर्फ खुद को ही नहीं अपने आसपास के सभी जीवित और निर्जीव चीज़ों में एक पॉजिटिव एनर्जी दे रहे होते हैं. वो एनर्जी जो हमारी ही बने होती है हमारे ही लिए. इसका उल्टा अगर हम लेते हैं. हम अपने दिन की शुरुआत किसी नेगटिव विचार से करते हैं, तो हम न सिर्फ खुद को बल्कि अपने आसपास की सभी चीज़ों को हतोत्साहित कर रहे होते हैं. हमारा खुद पर से विश्वास कम हो जाता है. और ये तो इंसानी फितरत है, अगर खुद पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं तो किसी अनजान शक्ति पर कैसे कर लें.

अगर हम टेक्निकल भाषा में बात करें तो ये एकदम एक modulus ( |x| ) की तरह है, आप इसमें पॉजिटिव वैल्यू डालें या नेगेटिव रिजल्ट हमेशा एक पॉजिटिव वैल्यू होगी. हमें नहीं पता वो कौन है लेकिन ख़ुशी हो या गम हम उसे ही याद करते हैं. ये एक ऐसा पैरामीटर है जिससे हम नेगेटिव एनर्जी और positve एनर्जी ...दोनों को explain करते हैं
ये एक ऐसी एनर्जी है जिससे हम सभी जुड़े हुए हैं. अगर हम किसी को दुःख में देखते हैं, भले ही उसे हम जानते हों या ना हो, हमें दुःख होता है. हम उम्मीद करते हैं की काश उसके साथ ऐसा न हुआ होता. ये इस बात का एक बड़ा उदाहरण है की हमारे अन्दर कहीं न कहीं ये बात केन्द्रित होती हैं की हम एक दुसरे से जुड़े हैं और एक दुसरे की खुशियों या दुखों से प्रभावित होते हैं. ये प्रभाव ही वो शक्ति है जिसे हम शब्दों में भगवान् कह देते हैं.

अगर हम Christianity की बात करें तो उनमे उसे GOD नाम से जाना जाता है..जो असल में तीन शब्द Generator , Operator और Destroyer. हिन्दू धर्म में भी हम उसे ब्रह्मा , विष्णु और महेष नाम नाम से जानते हैं... जिनका काम Generation, Operation और Destruction था. इसके बारे में आपको बताने की ज़रुरत नहीं लगती मुझे. मेरा बस एक ही पॉइंट है. अगर पृथ्वी के दो अलग अलग छोर पर अगर एक जैसे विचार को अगर महज एक संयोग भी मान लें, तो भी इनपर विश्वास ना करने का ठोस कारण हम नहीं दे सकते.

बड़ी बड़ी चीज़ों में उसे खोजते खोजते छोटी छोटी चीजों पर से हमारा ध्यान भटक गया है. साइंस में हमने पढ़ा है की पानी भले ही बड़े से बर्तन में हो या एक छोटे से चम्मच में, ना तो उसकी अहमियत कम होती है और ना ही उसके लिए हमारी प्राथमिकता. वैसे ही हमें भी छोटी चीजों में उसे भूलना नहीं चाहिए. बड़ी खुशियों की और भागते हुए छोटी खुशियों को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए.

जैसा की मैंने पहले भी कहा है की मैं बहोत ही साधारण सा इंसान हूँ. मुझे तो वो बस एक छोटी सी हंसी में दिखता है. ठंढे से हवा के झोंको में. रंग बदलते पत्तों में. पके हुए फल में . काम से थक कर एक दोस्त से बात करने में. एक ' miss you, kamine' वाले मेसेज में, एक फोटो पर लड़ते हुए दोस्त में, रक्षाबंधन पर बहन की तरफ से आई राखी में, एक पुराने फोटो एल्बम के अचानक मिल जाने में, ट्रेन के सही समय पर पहुचाने में, मेट्रो में मशीन की तरह घुमते वक़्त किसी पुराने दोस्त के पीछे से कंधे पर हाथ रखने में, किसी को शुक्रिया कहने पर 'मर क्यूँ नहीं जाता' सुनने में, किसी सुबह आंख खुलने पर खुद को घर पर पाने में, सुबह सुबह unhygienic सी ब्रेड रोल खाने में, बारिश में नहाने में, पहले बर्थडे बम्प्स में, तुम्हारी पहली कमाई में, यहाँ तक की एक 3G कनेक्शन में भी .... मुझे उसे मानने या ना मानने की ज़रुरत नहीं. अगर वो है तो उसे इन सब के लिए बहोत बहोत धन्यवाद. और अगर वो नहीं है तो इनसब लम्हों को मेरी जिंदगी में आने और लाने के लिए आप सभी को धन्यवाद.