Thursday, 26 December 2013
Raw Sun
Thursday, 14 November 2013
नयी फटी शर्ट
Tuesday, 5 November 2013
उफ्फ्फ...तुम्हारे Opinions !
अपूर्व को इंडिया पाकिस्तान के मैच के बाद इतना गाली देते हुए आज देख रहा हूँ। मैंने उसे कहा भी की भईया इतनी बड़ी बात भी क्या हो गई। कौन सी दुनिया उजड़ गई आपकी। एक जीन्स ही तो है जो दूकानदार ने खराब दे दी है। इतना क्या स्यापा पाना इसपर। उसने जिस तरह से मुझे देखा मुझे अन्दर से महसूस हुआ की अगर बन्दे को इस वक़्त एक straw मिल जाता तो वो पक्का मेरा खून ही पी जाता। और उस दिन लगभग सारे हॉस्टल को ये बात पता चल गई की Levi's की जीन्स अगर बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। इस तरह से एक बन्दे के सिर्फ एक जीन्स पर एक छोटी सी opinion की वजह से , ये कुछ सौ लोगों के दिमाग में levi's store में कदम रखने से पहले एक बार घंटी तो ज़रूर बजेगी।
ये सिर्फ एक जीन्स की बात नहीं है। जिंदगी की हर छोटी चीज़ जो हमसे जुडी है हम उसपर जाने अनजाने एक opinion ज़रूर बनाते हैं। और न सिर्फ ये opinion बनाते हैं बल्कि अपने आसपास के लोगों के साथ अपने विचार और experiences भी बाँटते हैं।
हम dominoes गए। वहां का खाना अच्छा या बुरा। हम अपना opinion रखते हैं।
कोई नया mall खुला शहर में। पिछले वाले से उसका comparison । हम अपना opinion रखते हैं।
मैंने नया samsung फोन लिया। बहोत गर्म होजाता है। कुह अच्छे features भी हैं। हम अपना opinion रखते हैं।
एक नयी फिल्म देखी। गाने कुछ ज्यादा ही थे। हम अपना opinion रखते हैं।
इंसानों का एक basic और अनुवांशिक nature होता है opinion बनाना। और न सिर्फ बनाना बल्कि उसे दूसरों के सामने express करना। और ये शर्मिंदा होने की बात नहीं है। बल्कि ये तो प्रमाण है की आप इंसान हैं।
ये ही opinions जब एक समूह में लिए और बनाये जाते हैं तो ये trend का रूप ले लेती है और फिर ना ही सिर्फ social बल्कि commercial और economical रूप से वर्चस्व बनाये हुए organisations को भी अपने सबसे सूक्ष्म और बेसिक समूह के हित में काम करने को मजबूर कर देती है। और आपको जानकर थोडा आश्चर्य हो सकता है लेकिन ये सूक्ष्म और बेसिक समूह कोई और नहीं हम खुद हैं।
यही वजह है की आम लोगों के opinion बनाने से बहोत से "लोगों" को डर लगता है। ये वो लोग हैं जो market में पकड़ बना चुके होते हैं और व्यावहारिक स्तर पर profit कमाना ही जिनका उद्देश्य रह गया है। और अब इन्हें अपनी गिरती value की वजह से अपने सर्विस और कीमतों में सुधार लाना होगा जिससे अंत में फायदा उस सूक्ष्म समूह को ही होगा जो हमसे बनती है।
इसीलिए opinions या तो अच्छे हों या बुरे। मीठे हों या कडवे। आप उसपर ban या रोक नहीं लगा सकते। और अगर आप या कोई राजनितिक पार्टी ऐसा करने की कोशिश करते हैं तो दो ही बातें हो सकती हैं।
1) या तो आप उस निचले और सूक्ष्म स्तर, जो की हम आम आदमी हैं, की कोई चिंता नहीं करते।
2) या आप डर गए हैं।
इसलिए अपनी बात रखिये और इंसान होने का प्रमाण दीजिये। एक ऐसा इन्सान जो ना सिर्फ जगा है बल्कि चौकन्ना भी है। जो सिर्फ विचार बनाता नहीं बल्कि उसको व्यक्त करने का साहस और हुनर दोनों रखता है। ऐसा इंसान जो अपने पूर्वजों से एक कदम आगे रहा है। जो evolution की सीढ़ी में आगे जाने को तैयार है। हम और आप। फैसला कोई भी हो.. आप अपना opinion देंगे... और उसी का मुझे इंतज़ार भी रहेगा हमेशा की तरह।
Monday, 28 October 2013
Boiled egg या Fried egg ??
Tuesday, 8 October 2013
मुझसे पहले मैं
Wednesday, 2 October 2013
अरे... कौन है उधर !!!
अगर हम Christianity की बात करें तो उनमे उसे GOD नाम से जाना जाता है..जो असल में तीन शब्द Generator , Operator और Destroyer. हिन्दू धर्म में भी हम उसे ब्रह्मा , विष्णु और महेष नाम नाम से जानते हैं... जिनका काम Generation, Operation और Destruction था. इसके बारे में आपको बताने की ज़रुरत नहीं लगती मुझे. मेरा बस एक ही पॉइंट है. अगर पृथ्वी के दो अलग अलग छोर पर अगर एक जैसे विचार को अगर महज एक संयोग भी मान लें, तो भी इनपर विश्वास ना करने का ठोस कारण हम नहीं दे सकते.
बड़ी बड़ी चीज़ों में उसे खोजते खोजते छोटी छोटी चीजों पर से हमारा ध्यान भटक गया है. साइंस में हमने पढ़ा है की पानी भले ही बड़े से बर्तन में हो या एक छोटे से चम्मच में, ना तो उसकी अहमियत कम होती है और ना ही उसके लिए हमारी प्राथमिकता. वैसे ही हमें भी छोटी चीजों में उसे भूलना नहीं चाहिए. बड़ी खुशियों की और भागते हुए छोटी खुशियों को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए.

जैसा की मैंने पहले भी कहा है की मैं बहोत ही साधारण सा इंसान हूँ. मुझे तो वो बस एक छोटी सी हंसी में दिखता है. ठंढे से हवा के झोंको में. रंग बदलते पत्तों में. पके हुए फल में . काम से थक कर एक दोस्त से बात करने में. एक ' miss you, kamine' वाले मेसेज में, एक फोटो पर लड़ते हुए दोस्त में, रक्षाबंधन पर बहन की तरफ से आई राखी में, एक पुराने फोटो एल्बम के अचानक मिल जाने में, ट्रेन के सही समय पर पहुचाने में, मेट्रो में मशीन की तरह घुमते वक़्त किसी पुराने दोस्त के पीछे से कंधे पर हाथ रखने में, किसी को शुक्रिया कहने पर 'मर क्यूँ नहीं जाता' सुनने में, किसी सुबह आंख खुलने पर खुद को घर पर पाने में, सुबह सुबह unhygienic सी ब्रेड रोल खाने में, बारिश में नहाने में, पहले बर्थडे बम्प्स में, तुम्हारी पहली कमाई में, यहाँ तक की एक 3G कनेक्शन में भी .... मुझे उसे मानने या ना मानने की ज़रुरत नहीं. अगर वो है तो उसे इन सब के लिए बहोत बहोत धन्यवाद. और अगर वो नहीं है तो इनसब लम्हों को मेरी जिंदगी में आने और लाने के लिए आप सभी को धन्यवाद.
Monday, 16 September 2013
कल आना कृष्णा
Sunday, 25 August 2013
che 'YOU' Guevara
आज मैं ऐसे ही बाजार में टहल रहा था. मैं एक स्टोर में घुसा जहाँ सस्ते में quoted tee shirts मिल रही थीं. वहां मैं जैसे ही अन्दर पंहुचा एक आवाज मेरे कानों में पड़ी " भैया कोई दूसरी दिखाइये, इसमें Che Guevara की पिक्चर अच्छी नहीं आई है." मैं पलटा तो ये आवाज एक पतले से बन्दे के अन्दर से आरही थी जिसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था की अगर इसे अफ्रीका भेज दिया जाए तो इसे वहां भी BPL कार्ड मिलने में कोई तकलीफ नहीं होगी.
मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो मैं उसके थोडा और करीब गया. मैं उससे पूछना चाहता था की छोटू- जानते भी हो की ये कौन है या बस यूँ ही. लेकिन मैंने सोचा की अपनी इज्ज़त अपने हाथ में है इसलिए मैंने थोड़ी politeness दिखने का सोचा. मैंने उससे पुछा की ये है कौन ज़रा मुझे भी बताओ !!. उसने थोड़ी हसी दबाते हुए कहा.. "pheew .. आपको नहीं पता?? ये एक Mexican revolutionist थे. पढ़े लिखे तो लगते हैं आप."..
मुझे थोड़ी बेईज्ज़ती महसूस हुई. लेकिन कोई बात नहीं. मैंने थोड़ी सांस ली थोडा मुस्कुराया और उससे दूसरा सवाल पूछने के लिए खुद को तैयार किया. "क्या इनके बाद कभी कोई revolution नहीं हुआ? क्या कोई और हीरो नहीं हुआ पूरी दुनिया में इनके बाद? इनकी ही फोटो वाली शर्ट क्यूँ?". उसने कहा " बड़ी ऊल-जलूल बातें करते हैं आप, सभी Guevara ही पेहेनते हैं, इसलिए मैं भी लेने आया हूँ. फैशन का ज्ञान आपको नहीं है लगता है." ये कहकर उसने सामान लिया और चलता बना. लेकिन पीछे छोड़ गया एक सवाल. सवाल जो मेरे दिमाग में popcorn की तरह उछलकूद कर रहा था.
मैं खुद बहोत बड़ा फैन हूँ Che Guevara का. मुझे उनके सिद्धांत पसंद हैं. एक सोच. एक इरादा.उसपर चलने का जूनून. लेकिन मुझे आपके बारे में शक है थोडा. हो सकता हैं की मैं गलत हूँ. लेकिन कहीं आप भी वैसे तो नहीं. जिसे Che Guevara एक चेहरा लगता है जिसे अपने tee shirt पर होने पर आप बुद्धिजीवी से लगेंगे इन बेवकूफों के बीच. क्या आपको पता है की ये है कौन. इन्होने अपने देश के लिए क्या किया. चलिए छोडिये इस सवाल को. किसी एक revolutionist का नाम ही बता दीजिये. दुनिया के ना सही अपने देश के ही किसी बन्दे का नाम लेलिजिए.
ओह...शायद मैंने कुछ ज्यादा ही 'उल ज़लूल' सवाल पूछ दिए.
लेकिन my dear friend विश्वास करिए आप भी इसी दौड़ का हिस्सा बन रहे हैं. Revolution आज एक पोस्टर पर बनी एक खूबसूरत पेंटिंग के बगल में लिखा एक शब्द बन कर रह गया है. आप किसी भी चीज़ को सिर्फ इसलिए follow करते हैं क्यूंकि दुसरे लोग उन्हें follow करते हैं. दुसरे देशों को छोडिये क्या आपको याद अहि की शुभाष चन्द्र बोसे जैसे लोग भी हमारे देश में हुए हैं जिन्होंने revolution जैसे शब्दों को अलग ही मायने दिए. लेकिन हमें वो याद नहीं हैं. हम उनके पोस्टर्स नहीं लगाते. हम उनकी बातें नहीं करते. और हम कर भी नहीं सकते. कैसे करेंगे. ना वक़्त है मेरे पास की उनके बारे में जानें और ना ही सौरव और कुलकर्णी के पास उनकी शक्ल वाली शर्ट ही है . भाई अच्छा थोड़ी लगता है.
मैं revolution की तो बात ही नहीं कर रहा. वो काफी भारी शब्द है. मैं बस आपकी और मेरी बात कर रहा हूँ. क्या हम और आप किसी भी जिंदगी के छोटे या बड़े फैसले खुद अपने दिमाग से कर पा रहे हैं. या हमारा हर फैसला जाने अनजाने दूसरों के फैसलों से प्रभावित हो रहा है. हमें इस बात को समझना चाहिए की दूसरों के चुनाव या फैसले उसकी खुद की परिस्थितियों के अनुकूल थी. ये परिस्थितियां आपके लिए पूरी तरह अलग होसकती है. जो आपके फैसलों पर भी प्रभाव डालेंगी. इसलिए आपका अंधी भीड़ में भागना थोडा जोखिम भरा हो सकता हैं. Revolution ऐसे रस्ते पर जाने को कहते हैं जहाँ आप खुद को पाते हैं. वो आप जो आपकी परिस्थितियों के अनुकूल हो. जहाँ आप अपनी जिन्दगी का कोई भी फैसला खुद के लिए करते हैं ना की दूसरों को दिखाने के लिए. एक बार आपने खुद को समझ लिया , मुझे लगता है किसी che Guevara या कम से कम उनकी tee shirt की ज़रुरत आपको नहीं ही पड़ेगी.
Happy Revolution
Thursday, 22 August 2013
One Dollar Rupee
Thursday, 15 August 2013
State of Independence
ख़ुशी हो भी क्यूँ ना, कम से कम एक दिन तो हमें मिलता है जिस दिन हम हर तरह से खुद को तस्सली दिला सकते हैं की भईया सच में हम आज़ाद हैं। वरना कहाँ इस बेरहम भाग दौड़ वाली जिंदगी में इस बात का एहसास हो पाता है। दिन भर देश के एक बड़े शहर के छोटे से कोने में बहोत ही तेजी से पूरी दुनिया से जोड़े रखने वाली मशीन के सामने बैठे रहने पर , कहाँ इस आज़ादी का लुत्फ़ उठा मिलता है।
इसमें कुछ गलत नहीं है। हमें पूरा हक है की हम जैसे चाहें वैसे अपनी स्वतंत्रता को enjoy करें। बात बस इतनी सी है की क्या हमें पता है की हमें अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कैसे करना है या हम कैसे कर सकते हैं और फिर भी नहीं करते। हम आज भी इंतज़ार करते हैं की कोई आकर हमारी बात आगे रखे। कोई आए जो हमारी दिक्कतों और परेशानियों का solution ढूंढें। हमें कुछ बोलने, कुछ चित्रित करने,कुछ सोचने से पहले भी इस बात का डर होता है की कहीं ये system हमारे सभी भावनाओं को दबा ना दें। सिर्फ इसी इसी डर से हम अपनी बची खुची इच्छाएँ भी दबा देते हैं। हम भूल जाते हैं की इस व्यवस्था की एक एक कड़ी हमारी चुनी हुई है। इसकी एक एक नीव हमारी मजबूती और योगदान को दिखाती है न की हमारी कमजोरी और असहाय हालत को।
हम भूल गए हैं की हमने ये कही सुनी आज़ादी कैसे, किन मुश्किलों में पाई है। इसमें हमारी कोई गलती नहीं है। हमें आज़ादी मिली ही उपहार में है। हमने कहाँ किसी नेहरु गाँधी को सुना है। हम तो ना थे 1947 की उस पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में जिसमे सैकड़ो लोग मारे गए थे। उन दंगो में हमारे मकान और दुकानें नहीं जलाई गई थी।
भईया.. उपहार तो हमें आज भी बखूबी याद है, बस उपहार देने वालों को भूल गए हैं। ज्यादा नहीं बस थोडा सा। और उपहार की कीमत थोड़ी पूछी जाती है देने वालों से. सो हमने भी कभी ये जानने की गुस्ताखी ना की। इसमें गलत तो कुछ ना था।
हमारे ऐसे होने का एक बड़ा कारण ये है की हम आज़ादी संभाल नहीं पा रहे हैं। लेकिन ये बात हम कभी नहीं मानेंगे। हम कभी नहीं मानेंगे की हम आज भी अंदर से गुलाम है। गुलाम अपने ही लोगों के हाथों। अपनी ही भावनाओं के हाथो। हम आज अपने सपनो के पीछे नहीं भागते। हम किसी और के पीछे भागते हैं जो किसी और के पीछे भागता है उसके सपने पूरे करने के लिए। क्यूंकि हम अपने पसंद का काम सिर्फ इसलिए नहीं करते क्यूंकि किसी अनजान बन्दे ने हमसे कभी कह दिया था की ये काम बेकार है, या सामाजिक रूप से तिरस्कृत। ये वही लोग होते हैं जो समाज में समानता की बात करते हैं। क्यूंकि हम उसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं जिसे पता भी नहीं की उन्हें चाहिए क्या। जो रोज सुबह जगता है और हफ्ते के पांच दिन किसी और देश की दिक्कतों और समस्यायों को एक फ़ोन पर सुलझाता है।
हम अपनी ताकत भूल रहे हैं। हमे इस बात का एकसास नहीं है की जो इंसान फोन पर दुसरे मुल्क की दिक्कतों का निवारण कर रहा है वो व्यक्तिगत रूप से इस देश की तरक्की में कितना योगदान दे सकता है।
हमें देश की तरक्की में अपनी हिस्सेदारी पहचानने की ज़रुरत है। और इसमें अपना योगदान देने की भी। हमे खुद को इस बात का एहसास करवाने की ज़रुरत है की संवैधानिक, सामाजिक और मानसिक स्वतंत्रता में क्या अंतर है। और इन तीनो के बिना किस तरह से हमारी आजादी बस नाम मात्र है।
dependent होकर अपने आप को indepentent कहना और अपने ही जैसे दुसरे dependents को इस भ्रम में रखना मुझे नहीं लगता हमारे लिए ज्यादा हितकर होगा।
दो स्वतंत्रताएं तो शायद हमें हमारे पूर्वजों ने दे दी है। बाकी सिर्फ मानसिक स्वतंत्रता है। उम्मीद करूंगा हमें जल्द ही वो भी हासिल हो। आमीन।।
Friday, 9 August 2013
शायद कल

लेकिन सवाल अभी भी वही था... सामाजिक उत्पीडन तो हुआ था. लड़कियों का और लड़कों का. वो भले ही शारीरिक हो या मानसिक. लड़कियाँ अब रात में अपने घरों से निकलने से डरने लगीं थी. वो अपने साथ के पुरुषों से घबराने लगी थीं. लड़के अब किसी लड़की को देखने से पहले सोचते थे. किसी हमशक्ल के धोखे में अब कोई लड़का किसी लड़की को नाम से नहीं पुकारता था. बाप अपनी बेटी को दिल्ली से बाहर पढाना चाहते थे. जिनकी बेटियां पहले से दिल्ली में थीं उनके डॉक्टरों की कमाई उनके blood pressure की तरह बढ़ने लगे थे. लड़के किसी अनजान लड़की की मदद करने से घबराने लगे थे. उन चौपालों पर अब लड़कियों की बातें नहीं हुआ करती. अब कोई 'देख भाभी आज पीले सूट में आई हैं' नहीं कहता था. तेरी-वाली मेरी-वाली पर शर्तें नहीं लगती अब. Ladies कम्पार्टमेंट में कोई मजनू किसी का पीछा करते नहीं घुसता था. अब हमने भी खाने के बाद ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने की अपनी आदत को खत्म कर दिया था. दिल्ली में रौनक तो थी लेकिन डरी, सहमी और असहाय.