Wing Up

Wing Up
●●●

Thursday, 26 December 2013

Raw Sun

हर बार ज़िन्दगी हमसे आगे भागती है. बहुत तेज़. और हम उसका पीछा करते हैं. और कई बार हम इतनी तेज़ी से पीछा करते हैं की हमें ये भ्रम हो जाता है की शायद हम इससे आगे भी निकल सकते हैं. लेकिन ऐसा भ्रम हमें ज्यादा वक़्त तक नहीं रहता. ये एकदम आइंस्टीन के थ्योरी जैसा है आप कितनी भी तेज भागिए आप लाइट की स्पीड से ज्यादा नहीं जा सकते. वैसे ही जिंदगी भी कितनी भी स्पीड से भागने की कोशिश करे वो आकर कहीं ना कहीं थम ही जाती है. और अगर ये ठहराव अचानक से आपके सामने आ जाती है जिंदगी के नियम आँखों के सामने थोड़े धुंधले पड़ते से लगते हैं.
ऐसे वक़्त में आपके सेंसेस स्थिर हो जाते हैं और आप किसी भी emotional चेंज को संभाल नहीं पाते. आप दुखी रहते हैं. चीखते हैं. सिसकते हैं. अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं. या नहीं करते हैं.
लेकिन फिर वक़्त बीतता है और आप खुद को सँभालते हैं. कोशिश करते हैं. रोकते हैं. अपने को मज़बूत करते हैं. अब आपकी इन्द्रियां अचेत अवस्था से जागती हैं और आप उस अँधेरे, दम घोटते कमरे से बाहर की तरफ देखते हैं. लेकिन अब भी आप वो दरवाज़ा खोलना नहीं चाहते. आप डरते हैं रोशनी से. उस सोच से जो बाहर है. उस अकेलेपन से, उस कमी से जो अब तक उस उजाले को और भी प्रकाशमय बनाये हुए थी और अब जो वहां ना हो.
आप बाहर देखते हैं और पाते हैं की वहां बाहर बहुत सी आँखें किसी की कमी बयां कर रही हैं. सबके आंसू सूख चुके हैं, लेकिन अब भी वे बेजान हैं. लेकिन ये क्या !!! ये अब भी कुछ ढूंढ रही हैं. इस बार ये ऑंखें उस खामोश रोशनी की तलाश नहीं कर रही हैं. ये किसी और की तलाश कर रही हैं. शायद उसकी जिसने बहोत वक़्त से उस कमरे में खुद को बंद कर रखा है. शायद उसकी जो उस घुटन भरे कमरे में रहने की आदत डाल रहा है. शायद आपकी.
अब बाहर झांकने का नहीं निकलने का वक़्त आ गया है. लोगों की आँखों में भ्रम पैदा करने का वक़्त आगया है. जिंदगी चलती रहनी चाहिए और उस चौथे पहिये का काम आ गया है.
आप बाहर आते हैं और पाते हैं की जिंदगी किसी अँधेरे में गुमनाम, चुपचाप, असहाय और अस्थिर पड़े रहना नहीं है बल्कि उस उजाले में है जो ना सिर्फ सूक्ष्म से बीज में जान डालती है बल्कि आपको खुद को संभाल कर उस अँधेरे ज़मीन से बाहर निकालने की हिम्मत भी देती है.

आप अगली सुबह जागते हैं और रोशनी को देखते हैं. आपमें बहोत एनर्जी है लेकिन अब आप बहोत उत्तेजित नहीं होते उसे देखकर. आपको पता है आप क्षितिज को छू नहीं सकते और अब आप छूने की कोशिश भी नहीं करते. लेकिन आप उसकी तरफ अपने क़दमों को नहीं रोकते. आप उसकी तरफ जाते रास्ते पर सफ़र करने को तैयार हैं. अब आपको पता है की जिंदगी किसी जगह पहोचन नहीं बल्कि एक सफ़र है. सफ़र एक ऐसे रास्ते पर जहाँ आपको दोनों extremes के बीच से अपनी गाडी निकालनी है. आप उस गाडी के सारे पुर्जों को एक बार फिर चेक करते हैं और एक नए, बिलकुल नए सफ़र पर निकल पड़ते हैं...


ps. Rest in peace ...you !

Thursday, 14 November 2013

नयी फटी शर्ट

रोज़ की तरह आज भी सुबह 6 बजे अलार्म की आवाज़ ने मुर्गे का काम आसान करते हुए मुझे हौले से जगाया. हाँ सच में. और कसम से गुस्सा तो मुझे आया ही नहीं. आता भी क्यूँ रोज़ का काम है उस बेचारे का. मैं बस उठा और "बहोत ही अच्छे मन से" बाथरूम की ओर तेज़ी से बढ़ा. मुझे अगर कोई सुबह सुबह बाथरूम की ओर भागता देख लेता तो उसे कारगिल पर सीमा की ओर भागते सैनिक की याद ज़रूर आ जाती.

लेकिन आज कुछ अलग हुआ. मैं बाथरूम तक नहीं पंहुच पाया. मेरे कदम बाहर से आ रही एक छोटी सी किरण ने रोक दी. एक छोटी सी रौशनी जो खिड़की के कोने से सीधे मेरे table पर आरही थी. मैंने अपने अन्दर के भाई-देर-हो-रही-है वाले इंसान को थोडा आराम दिया और खिड़की की ओर बढ़ा. खिड़की खुलते ही एक ठंढा सा हवा का झोंका मेरे चेहरे पर  पड़ा. ना बहोत खुश्क और ना ही नम, एकदम नपा तुला, सौंधी महक लिए वो ठंढा झोंका जो सूरज की चमक और गर्मी में मिलकर एक अलग सा एह्साह दे रहा था, सीधे मेरे चेहरे पर पड़ रहा था. मैंने आँखें बंद की और उस नए से एहसास  से खुद को वाकिफ कराने लगा.

लेकिन एक मिनट ....ये एहसास, ये सुकून, ये हवा कुछ जानी पहचानी सी लगी... कुछ अपनापन लिए.. किसी पुराने दोस्त की तरह. एक ऐसा एहसास जिसकी आगोश में आकर कोई परेशानी, कोई मुश्किल बस एक अफवाह से ज्यादा होने की जुर्रत नहीं करते. मेरे कानों में एक आवाज़ पड़ी - 'भाई !!! जल्दी उठ, सन्डे हैं, सात बज गए हैं, "रंगोली" के गाने छोड़ने का सोचा है क्या.' मेरी आँख एक ही आवाज़ में खुली और दो मिनट से कम वक़्त में मैं टीवी के सामने आँख फाड़े बैठा था. और पांच मिनट में मेरे सामने मेरे-सन्डे स्पेशल ब्रेड रोल और चाय थे. और पीछे से चिल्लाती माँ की आवाज़ " ठंड शुरू हो गई है कम्बल में घुसो ". उस कम्बल की गर्मी में calories और cholesterol वाले ब्रेड रोल का लुत्फ़, किशोर और मुकेश के पुराने गाने सुनते हुए लेने के बाद बारी थी सारे गमलों को पानी देने की. विश्वास करिए उन गमलों में रोबिन-हुड से लेकर गुलिवर तक की कहानियों के सेट बन चुके होते थे. ये कहानियां तब तक चलती रहतीं जबतक रोबिन-हुड और गुलिवर के बीच झगडे न शुरू हो जाते और माँ उनकी जगह हमारे पीछे झाड़ू लेकर भागती नज़र ना आने लगतीं. वैसे ये हाल कैरेम और लूडो के घंटों चलते matches के बाद भी देखने को मिल जाते थे जब नियम बनाते भी हम ही थे और तोड़ते भी. मोहल्ले में हो रहे क्रिकेट टूर्नामेंट में आप तभी जा सकते थे जब माँ किसी काम में इतनी व्यस्त हों की आप के घर पर ना होने से पैदा हुई शांति उनके परेशान होने का कारण ना बन जाए. ये एक आत्मघाती विस्फोट की तरह होता था जिसका detonation आपके लौटने के बाद आपके कारनामे और फटी हुई शर्ट खुद करती थी. उफ्.. तब तो गला फाड़ फाड़ कर रोने में भी शर्म नहीं आती थी.


मैंने ऑंखें खोली. अब मेरे अन्दर कहीं जाने की जल्दी नहीं थी. कोई झुझलाहट नहीं थी. मैंने ऑफिस फ़ोन लगाया और अपने बहोत-बहोत बीमार होने की बात बताई. लेकिन मैं बीमार नहीं हूँ. कुछ वक़्त चाहता हूँ. अपने लिए , बहोत सालों बाद. मैं इस सुबह की किरण को इस हवा को समेटना चाहता हूँ जो शायद हमेशा से मेरे आसपास ही थीं. लेकिन उन्हें देखने की मैंने न कभी कोशिश की और न ही ज़रुरत समझी. मुझे कुछ पकोड़े बनाने हैं अपने लिए जिसे चाय की हर एक चुस्की के साथ एन्जॉय करना है. मुझे कुछ कॉल करने हैं, अपने पुराने दोस्तों को जिन्हें मैं इस बड़े शेहेर की भागदौड़ में उस अमरुद के पेड़ पर छोड़ आया हूँ. कुछ चिट्ठियां लिखनी हैं उन खडूस अंकलों को जिनकी खिड़कियाँ आज भी हमारी गेंदों की निशान संजोये हुए हैं. कुछ किशोर की चुलबुली आवाज़ सुननी है, कुछ मुकेश के उफ़... वो दर्द भरे नगमे गुनगुनाने हैं. कुछ पुराणी पिक्चर देखनी हैं. एक दिन इस newspaper का मजाक बनाना है, बिना खोले बड़ा सा प्लेन बनाना है. आज थोडा कमज़ोर होना है, उस आम के पेड़ से गिरना है. आज बेवजह रोना है, कुछ आंसू बहाने हैं. फिर बिना किसी टेंशन के छत पर टेहेलना है और फिर आसमान को बेवजह घूरते हुए सो जाना है.


बहोत कुछ करना है आज. वो सब जो शायद मैं करना भूल गया हूँ, जो हम करना भूल गए हैं. कुछ ब्रेक अपने सपनों के पीछे भागने से लेते हैं और एक दिन अपने अन्दर के बचपन को देते हैं.


Happy Children-in-everyone every-day

Tuesday, 5 November 2013

उफ्फ्फ...तुम्हारे Opinions !

अपूर्व को इंडिया पाकिस्तान के मैच के बाद इतना गाली देते हुए आज देख रहा हूँ। मैंने उसे कहा भी की भईया इतनी बड़ी बात भी क्या हो गई। कौन सी दुनिया उजड़ गई आपकी। एक जीन्स ही तो है जो दूकानदार ने खराब दे दी है। इतना क्या स्यापा पाना इसपर। उसने जिस तरह से मुझे देखा मुझे अन्दर से महसूस हुआ की अगर बन्दे को इस वक़्त एक straw मिल जाता तो वो पक्का मेरा खून ही पी जाता। और उस दिन लगभग सारे हॉस्टल को ये बात पता चल गई की Levi's की जीन्स अगर बुरी नहीं है तो अच्छी भी नहीं है। इस तरह से एक बन्दे के सिर्फ एक जीन्स पर एक छोटी सी opinion की वजह से , ये कुछ सौ लोगों के दिमाग में levi's store में कदम रखने से पहले एक बार घंटी तो ज़रूर बजेगी।

ये सिर्फ एक जीन्स की बात नहीं है। जिंदगी की हर छोटी चीज़ जो हमसे जुडी है हम उसपर जाने अनजाने एक opinion ज़रूर बनाते हैं। और न सिर्फ ये opinion बनाते हैं बल्कि अपने आसपास के लोगों के साथ अपने विचार और experiences भी बाँटते हैं।

हम dominoes गए। वहां का खाना अच्छा या बुरा। हम अपना opinion रखते हैं।
कोई नया mall खुला शहर में। पिछले वाले से उसका comparison । हम अपना opinion रखते हैं।
मैंने नया samsung फोन लिया। बहोत गर्म होजाता है। कुह अच्छे features भी हैं। हम अपना opinion रखते हैं।
एक नयी फिल्म देखी। गाने कुछ ज्यादा ही थे। हम अपना opinion रखते हैं।

इंसानों का एक basic और अनुवांशिक nature होता है opinion बनाना। और न सिर्फ बनाना बल्कि उसे दूसरों के सामने express करना। और ये शर्मिंदा होने की बात नहीं है। बल्कि ये तो प्रमाण है की आप इंसान हैं।
ये ही opinions जब एक समूह में लिए और बनाये जाते हैं तो ये trend का रूप ले लेती है और फिर ना ही सिर्फ social बल्कि commercial और economical रूप से वर्चस्व बनाये हुए organisations को भी अपने सबसे सूक्ष्म और बेसिक समूह के हित में काम करने को मजबूर कर देती है। और आपको जानकर थोडा आश्चर्य हो सकता है लेकिन ये सूक्ष्म और बेसिक समूह कोई और नहीं हम खुद हैं।

यही वजह है की आम लोगों के opinion बनाने से बहोत से "लोगों" को डर लगता है। ये वो लोग हैं जो market में पकड़ बना चुके होते हैं और व्यावहारिक स्तर पर profit कमाना ही जिनका उद्देश्य रह गया है। और अब इन्हें अपनी गिरती value की वजह से अपने सर्विस और कीमतों में सुधार लाना होगा जिससे अंत में फायदा उस सूक्ष्म समूह को ही होगा जो हमसे बनती है।

इसीलिए opinions या तो अच्छे हों या बुरे। मीठे हों या कडवे। आप उसपर ban या रोक नहीं लगा सकते। और अगर आप या कोई राजनितिक पार्टी ऐसा करने की कोशिश करते हैं तो दो ही बातें हो सकती हैं।

1) या तो आप उस निचले और सूक्ष्म स्तर, जो की हम आम आदमी हैं, की कोई चिंता नहीं करते।
2) या आप डर गए हैं।

इसलिए अपनी बात रखिये और इंसान होने का प्रमाण दीजिये। एक ऐसा इन्सान जो ना सिर्फ जगा है बल्कि चौकन्ना भी है। जो सिर्फ विचार बनाता नहीं बल्कि उसको व्यक्त करने का साहस और हुनर दोनों रखता है। ऐसा इंसान जो अपने पूर्वजों से एक कदम आगे रहा है। जो evolution की सीढ़ी में आगे जाने को तैयार है। हम और आप। फैसला कोई भी हो.. आप अपना opinion देंगे... और उसी का मुझे इंतज़ार भी रहेगा हमेशा की तरह।

Monday, 28 October 2013

Boiled egg या Fried egg ??

आपको लग सकता है की ये क्या है. सवाल तो कभी ये था ही नहीं. सवाल तो हमारे बुजुर्ग हमेशा से ये पूछते आये हैं की पहले मुर्गी आयी या अंडा. आपको लग सकता है की मैं पागल तो नहीं हो गया !! शायद हाँ , शायद ना.
बात ऐसा है की मुझे बुजुर्गों वाले सवाल के जवाब से ज्यादा ख़ुशी मेरे इस सवाल के जवाब से मिलती है. और आप ऐसा मत सोचिये की ये सवाल मुझसे किसी नेशनल इंस्टिट्यूट के सेमीनार में पुछा गया था और उसके जवाब से मुझे नोबेल पुरस्कार मिलने वाला है, जो मैं इतना खुश हो रहा हूँ. ये सवाल तो मुझसे " तूफानी अंडा शॉप " के पप्पू भईया ने पुछा था. और मैंने बस प्यार से उन्हें कहा था " आज Boiled में ही समेट दे भाई !! " .


आप बिलकुल सही हैं. ना तो मैंने कुछ ऐतिहासिक काम किया है और ना ही कुछ ऐसा जिससे मुझे इतनी ख़ुशी होनी चाहिए. लेकिन फिर भी मैं खुश हूँ. खुश इसलिए भी क्यूंकि इस वक़्त मुर्गी और अंडे के बीच सदियों से चल आरही लड़ाई में जीत किसी की भी हो हमारे 'आज' पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. मैं एक ऐसी ख़ुशी के लिए जिसके होने ना होने की कोई गारेंटी भी नहीं के लिए अपनी छोटी सी ख़ुशी कुर्बान नहीं करना चाहता.


हम आज यही कर रहें हैं ..बड़ी खुशियाँ , बड़ी महत्वकांक्षा के पीछे भागते हुए छोटी खुशिया, छोटी ज़रूरतों पर हमारा ध्यान नहीं जाता. आपके लिए ये समझना बहोत ही ज़रूरी है की छोटे पड़ाव उतने ही ज़रूरी हैं जिनती एक बड़ी मंजिल.

ये छोटी छोटी खुशियों के पल हमारे लिए एक Atom के ऊपर एक छोटे से Photon energy pouch की तरह काम करती हैं. ऐसा एक छोटा सा pouch जो आपको stabilize भी कर सकते हैं और destabilize भी. और अजीब बात ये है की इस stable state में पहोचने के लिए आपको किसी बड़े एनर्जी पैकेट को पाकर ऊँचे लेवल पर जाने की भी ज़रुरत नहीं है. और अगर आप किसी ऊपर के लेवल पर पहोच भी जाते हैं तो भी आपको उन खुशियों को बांधे रखने के लिए इन छोटी छोटी खुशियों के photons को संजोये रखना होगा.

आज बड़े शहरों में बड़ी कंपनियों , MNCs के बुद्धिजीवी हमारे इन महत्वकान्छओं को काफी अच्छी तरह आँका है और इसका इस्तेमाल अपने फायदों के लिए हमारे ही खिलाफ किआ है. थोडा सा बोनस , थोड़े से तोहफे, थोड़े से वादों देकर वो हमसे ये छोटी छोटी खुशियों की झोली मांग लेते हैं और हम भी इसे बड़ी आसानी से दे देते हैं. इस छोटी झोली की बड़ी कीमत का अंदाज़ा हमें आगे चल कर होता है जब हम भीड़ में इतने आगे निकल जाते हैं की वापस आना मुश्किल हो जाता है.

बड़ी खुशियों के पीछे जाना बुरा नहीं है, बल्कि समाज के evolution के लिए ज़रूरी भी है. लेकिन इन छोटी खुशियों की कुर्बानी देकर नहीं. हम कहीं बड़े सवालों के जवाब की खोज में कहीं इतने व्यस्त ना हो जाएँ की छोटे सवाल आपसे मुंह ही मोड़ लें.

अब ये हमारे ऊपर है इस मुर्गी-अंडे के जवाब के वादे में क्या हम सामने रखे boiled egg और fried egg के option को ही खत्म कर देते हैं या मुर्गी को थोडा इंतज़ार करने को कह कर छोटी खुशियों को हज़म की शाजिश में लग जाते हैं. सवाल और जवाब हमेशा से आपके सामने ही था और आगे भी रहेगा , मुद्दा ये है की आप चुनते किसे हैं.

मैं भी किन चक्करों में पड़ गया... पप्पू यार !!! Boiled लगाया नहीं अभी तक....


Ps. Happy vacations ( if u have any )

Tuesday, 8 October 2013

मुझसे पहले मैं

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन.
सुबह का वक़्त था. मैं ट्रेन की अपनी बहोत ही " खुशनुमा " सफ़र खत्म कर के बाहर आ रहा था. "भईया, कहीं छोड़ दूं" एक बहोत ही बूढ़ा, शायद दो दिन से भूखा जो खुद खड़े होने तक की जद्दोजहद कर रहा था, वो मुझ जैसे भारीभरकम शरीर को ढोने की बात कर रहा था. "शुक्रिया दोस्त". बस यही निकला मेरे मुंह से और मैं आगे बढ़ गया.

शुक्रिया दोस्त..??... क्या चल रहा था मेरे दिमाग में. इसबार शायद कुछ भी नहीं. कम से कम उसकी लाचारी,बेबसी तो कत्तई नहीं. मेरे दिमाग में कोई चल रहा था तो वो मैं था. मैं, जो कुछ साल पहले इसी स्टेशन से उतरा था, इन्ही कमज़ोर , कर्कस और घुटन भरी आवाज़ों के बीच से गुज़रता हुआ. नफरत और घृणा से भरा, ऐसे अप्रिय शब्दों का प्रयोग करता हुआ जो मैं खुद अपने लिए नहीं सुनना चाहूँगा.


दिल्ली मेट्रो स्टेशन.
सुहानी शाम. दोस्तों के साथ. आज अपूर्व का जन्मदिन है. सभी उतने खुश हैं जितने exams के dates खिसकने पर भी नहीं होते. चीखते चिल्लाते हम बाहर निकलते हैं.. मेरी नज़र बाहर एक औरत, जो अपने दो साल के दिखने वाले बच्चे के साथ जो उसकी गोद में एक मांस के लोथड़े की तरह पड़ा हुआ था, पर गई. लेकिन इस बार मैं उसे अपनी जेब से पैसे निकल कर नहीं दे पाया.

क्या हो गया था मुझे...क्या चल रहा था दिमाग में. क्या अखबार का वो टुकड़ा जिसमे इस तरह के भीख मांगने वालों के गोरखधंधे के बारे में लिखा था.. या ये की आखिर ये कब तक मेरी ज़िम्मेदारी है.. इस बार आगे बढ़ते वक़्त मुझमे थोडा दुःख तो था लेकिन पश्चाताप की भावना नहीं. पिछली बार तो ऐसा नहीं था. पिछली बार तो ना वो अखबार का टुकड़ा था और न ही इतनी परिपक्वता.
 
... अजीब है ना. ये आप और हम ही हैं. एक ही समय में, एक ही परिस्थिति में, अलग अलग तरह से व्यवहार करते हुए. मैंने बस अभी इस बात का उदाहरण दिया है की हमारा दिल और दिमाग एक साथ काम करते भी हैं और नहीं भी.

जब हम छोटे होते हैं तो हमें बहोत चीज़ों का ज्ञान नहीं होता, हम अपने आस पास के environment से छोटी छोटी कड़ियाँ इकट्ठी करते हैं और उन्हें जोड़ने की कोशिश करते हैं. और जो हमारे सामने आता है उसे ही परम सत्य मान कर आगे की जिंदगी बिताने का खुद से वादा कर लेते हैं. हमें गांधी के आदर्श पसंद आते हैं, हमें खाने की बर्बादी पर गुस्सा आता है, हमें ऑटो से नहीं साइकिल से स्कूल जाना है, कपडे साफ़ और प्रेस चाहिए, रोड पर हुए गड्ढों के लिए हम भगवन को कोसते हैं, हमें हिरोशिमा पर हुए हमले दुनिया की सबसे बड़ी भूल लगती है. हम कोई सवाल नहीं करते. हम बस पुरानी चल रही भावनाओं और विचारों का आँख बंद कर पालन करते हैं.
 
हम थोड़े बड़े हुए. खुद पर थोडा शक हुआ. सवालों का भूख बढ़ा तो उन्हें पूरा करने की कोशिश में लग गए. इसका परिणाम ये हुआ की अब हम गांधीवादी नहीं रह गए, खाने की बर्बादी को ecological cycles में explain करने लगे, अब हमें साइकिल पर शर्म आती है, कपड़ों के साफ होने की ज़रुरत नहीं, रोड पर हुए गड्ढों के लिए अब हम भगवान् को नहीं नगर पालिका को कोसते हैं. अब हम हिरोशिमा पर हुए हमलों को आगे कभी ना होने वाली गलती की शिक्षा के रूप में लेते हैं. काफी कुछ बदल गया है.

हम थोड़े और बड़े होते हैं. इतने की शायद अब इससे बड़े होने की कोई गुंजाईश नहीं है. अब मैं परिपक्वता की पराकाष्ठा पर हूँ. अब सवालों की भूख नहीं है मुझे. अब जवाबों की कशमकश ही है. अब गाँधी समकालीन राजनीतिक परिस्थियों के लिए गलत और सामाजिक उत्थान के लिए अच्छे लगने लगे हैं, अब एक शादी में खाने की बर्बादी वहां काम कर रहे मजदूरों के भूखे सो जाने से ज्यादा बड़ी सजा नहीं लग रही, अब साइकिल चलाना ही स्वस्थ रहने का एक जरिया नजर आता है, कपडें साफ़ ना हों तो निकृष्टता की भावना घर करती है अब, रोड हुए गड्ढों के लिए अब नगरपालिका से ज्यादा भागवान पर गुस्सा आता है की कोई फ़िक्र भी है तुम्हे इस संसार की या नहीं, अब हिरोशिमा पर हुए हमले भले ही आगे के लिए एक शिक्षा हो लेकिन वहां खोई हुई इंसानों की जिन्दगिया अब ज्यादा अफ़सोस देती है.
 
जिंदगी वापस वहीँ आगे है जहाँ से शुरू हुई थी. वही जिंदगी जो कभी दिल से,कभी दिमाग से, कभी दोनों से तो कभी दोनों के बिना आगे बढती ही है. Chaos भले ही जिंदगी की सच्चाई भी हो और भ्रम भी, लेकिन ये आपके जिंदगी में किये गए फैसले ही हैं जो इसे रोके रखते हैं और आगे भी बढाते हैं. जिंदगी का सफ़र जहाँ शुरू होता है वहीँ खत्म भी.

Happy Cycle.

Wednesday, 2 October 2013

अरे... कौन है उधर !!!

O..NO.NO.NO….Nope… मैं कैसे !! मैं इतना छोटा हूँ अभी. इतना अपरिपक्व. मैं, मेरे विचार ना तो इतने विस्तृत हैं और ना ही अनुभवी की मैं इस बारे में कुछ लिख सकूँ.
ये ही जवाब था मेरा (और शायद आपका भी ) जब मुझसे किसी दोस्त ने कहा ... "भगवान् के बारे में लिखो."
मजाक है क्या उसके बारे में लिखना जिसे मैं मानता भी हूँ और नहीं भी. जनता भी हूँ और नहीं भी.

उसके बारे में लिखना जो वस्तु भी है और भावना भी. विश्वास भी है और अंध-विश्वास भी. जिसे आप मूर्ति माने ना माने आपकी श्रधा में कोई कमी नहीं आती. जिसे हम दुःख में भी उतना ही याद करते हैं जितना सुख में. क्या लिख सकता था मैं उसके बारे में.

मैंने उसे हमेशा एक 'सिक्के' की तरह माना है. जो खुद में दो पहलु लिए होता है. लाभ भी और हानि भी. सुख भी और  दुःख भी. खूबसूरती भी और बदसूरती भी. वो किसी एक पहलु का ना तो चयनकर्ता है और ना ही उत्तरदायी.

हमें कई बार भ्रम हो जाता है की हमारे साथ जो अच्छा हो रहा है वो ऊपर बैठा कोई इश्वर कर रहा है. वहीँ जैसे ही हमारे साथ कोई बुरा होता है हमारा विश्वास कम होने लगता है. मुझे नहीं लगता की उसपर आपके कम या ज्यादा विश्वास का कोई फर्क पड़ता होगा. अगर कोई है जिसपर फर्क पड़ता है, तो वो हम हैं.

जब हम कोई काम इस उम्मीद से करते हैं की कोई है जो हमारा साथ दे रहा है, कोई है जो हमारे साथ कोई बुरा नहीं होने देगा. उस वक़्त हम सिर्फ खुद को ही नहीं अपने आसपास के सभी जीवित और निर्जीव चीज़ों में एक पॉजिटिव एनर्जी दे रहे होते हैं. वो एनर्जी जो हमारी ही बने होती है हमारे ही लिए. इसका उल्टा अगर हम लेते हैं. हम अपने दिन की शुरुआत किसी नेगटिव विचार से करते हैं, तो हम न सिर्फ खुद को बल्कि अपने आसपास की सभी चीज़ों को हतोत्साहित कर रहे होते हैं. हमारा खुद पर से विश्वास कम हो जाता है. और ये तो इंसानी फितरत है, अगर खुद पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं तो किसी अनजान शक्ति पर कैसे कर लें.

अगर हम टेक्निकल भाषा में बात करें तो ये एकदम एक modulus ( |x| ) की तरह है, आप इसमें पॉजिटिव वैल्यू डालें या नेगेटिव रिजल्ट हमेशा एक पॉजिटिव वैल्यू होगी. हमें नहीं पता वो कौन है लेकिन ख़ुशी हो या गम हम उसे ही याद करते हैं. ये एक ऐसा पैरामीटर है जिससे हम नेगेटिव एनर्जी और positve एनर्जी ...दोनों को explain करते हैं
ये एक ऐसी एनर्जी है जिससे हम सभी जुड़े हुए हैं. अगर हम किसी को दुःख में देखते हैं, भले ही उसे हम जानते हों या ना हो, हमें दुःख होता है. हम उम्मीद करते हैं की काश उसके साथ ऐसा न हुआ होता. ये इस बात का एक बड़ा उदाहरण है की हमारे अन्दर कहीं न कहीं ये बात केन्द्रित होती हैं की हम एक दुसरे से जुड़े हैं और एक दुसरे की खुशियों या दुखों से प्रभावित होते हैं. ये प्रभाव ही वो शक्ति है जिसे हम शब्दों में भगवान् कह देते हैं.

अगर हम Christianity की बात करें तो उनमे उसे GOD नाम से जाना जाता है..जो असल में तीन शब्द Generator , Operator और Destroyer. हिन्दू धर्म में भी हम उसे ब्रह्मा , विष्णु और महेष नाम नाम से जानते हैं... जिनका काम Generation, Operation और Destruction था. इसके बारे में आपको बताने की ज़रुरत नहीं लगती मुझे. मेरा बस एक ही पॉइंट है. अगर पृथ्वी के दो अलग अलग छोर पर अगर एक जैसे विचार को अगर महज एक संयोग भी मान लें, तो भी इनपर विश्वास ना करने का ठोस कारण हम नहीं दे सकते.

बड़ी बड़ी चीज़ों में उसे खोजते खोजते छोटी छोटी चीजों पर से हमारा ध्यान भटक गया है. साइंस में हमने पढ़ा है की पानी भले ही बड़े से बर्तन में हो या एक छोटे से चम्मच में, ना तो उसकी अहमियत कम होती है और ना ही उसके लिए हमारी प्राथमिकता. वैसे ही हमें भी छोटी चीजों में उसे भूलना नहीं चाहिए. बड़ी खुशियों की और भागते हुए छोटी खुशियों को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए.

जैसा की मैंने पहले भी कहा है की मैं बहोत ही साधारण सा इंसान हूँ. मुझे तो वो बस एक छोटी सी हंसी में दिखता है. ठंढे से हवा के झोंको में. रंग बदलते पत्तों में. पके हुए फल में . काम से थक कर एक दोस्त से बात करने में. एक ' miss you, kamine' वाले मेसेज में, एक फोटो पर लड़ते हुए दोस्त में, रक्षाबंधन पर बहन की तरफ से आई राखी में, एक पुराने फोटो एल्बम के अचानक मिल जाने में, ट्रेन के सही समय पर पहुचाने में, मेट्रो में मशीन की तरह घुमते वक़्त किसी पुराने दोस्त के पीछे से कंधे पर हाथ रखने में, किसी को शुक्रिया कहने पर 'मर क्यूँ नहीं जाता' सुनने में, किसी सुबह आंख खुलने पर खुद को घर पर पाने में, सुबह सुबह unhygienic सी ब्रेड रोल खाने में, बारिश में नहाने में, पहले बर्थडे बम्प्स में, तुम्हारी पहली कमाई में, यहाँ तक की एक 3G कनेक्शन में भी .... मुझे उसे मानने या ना मानने की ज़रुरत नहीं. अगर वो है तो उसे इन सब के लिए बहोत बहोत धन्यवाद. और अगर वो नहीं है तो इनसब लम्हों को मेरी जिंदगी में आने और लाने के लिए आप सभी को धन्यवाद. 

Monday, 16 September 2013

कल आना कृष्णा

आज मैंने एक सिक्का ऊपर उछाला. ऐसे ही बिना किसी वजह. मैंने सिक्का उछालने से पहले खुद से कोई सवाल भी नहीं पुछा. बस उछाल दिया. ये जानने के लिए की क्या मैं बिना किसी पहलु को चुने हुए रह पाता हूँ या नहीं. सिक्के के हवा में जाते ही मुझे ऐसा लगा की किसी ने मेरे ऊपर बन्दूक रखकर किसी एक साइड को चुनने के लिए मजबूर कर दिया हो.
इतने सालों से इस भीड़ भाड़ वाली materialistic दुनिया में दो में एक , तीन में दो चुनते चुनते हमारी आदत बन गई है चुनाव करने की. कई बार हमारे फैसले चुनाव की प्रक्रिया में ही फंसे रह जाते हैं और इससे तंग आकार हम एक पहलु चुन लेते हैं बिना ज्यादा सर दर्द कराए. कई बार ये फैसले बस ऐसे ही लिए जाते हैं की - शुक्ला जी ने भी तो यही चुना है, और आदमी भी भले हैं. बस लें या मेट्रो लें, कोल्ड ड्रिंक लें या लस्सी लें, Chinese आर्डर करें या Italian, पैसे वाली जॉब करें या पसंद वाली, माँ की सुने या बीवी की... ऐसे सैकड़ों फैसले करने होते हैं तो मालिक दिमाग कहाँ तक खराब करे एक बेचारा 206 हड्डियों वाला इंसान. बात भी सही है.
लेकिन ये वो समाज नहीं है जो कृष्णा ने सोचा था. ऐसा समाज जो अपने फैसलों को अपने उसूलों को परिस्थितियों के अनुकूल ढाल सके. ऐसा समाज जो शांति बनाये रखने में तो विश्वास रखे लेकिन साथ ही अपने ऊपर आई एक आंच पर उसी अनुसार कठोर फैसले भी कर सके. वो समाज जो एक भीड़ से ना बनी हो. जो ऐसे इंसानों का समूह हो जहाँ सभी अपने विचारों और फैसलों को रखने का हुनर जानते हों. जो भीड़ में उनके भीड़ में खड़े एक बच्चे को सिर्फ इसलिए न रौंद दें क्यूंकि वो उनके कौम का ना हो. भीड़ की सोच हमेशा छोटी होती है.किसी एक सोच पे केन्द्रित. वो अच्छी हो या बुरी. भीड़ को इस बात से फर्क नहीं पड़ता.
कृष्णा की भगवद्गीता किसी एक पहलु को चुनने की बात नहीं कहता. वो कहता है दो अलग अलग शब्दों को साथ में लेकर चलने की कला को. दो शब्द. भगवद और गीता. एक तरफ जहाँ भगवद हमें प्रेम, सौहाद्र, शांति और सम्पन्नता की बात करती है वहीँ गीता नफरत, युद्ध, कठोर फैसले और दुखों को दिखाती है. भगवद्गीता इन दो पहलुओं को एक साथ बिना किसी चुनाव के अपने जीवन में अपनाने की बात करती है.
गाँधी और Russell जैसे लोगों ने जहाँ सिक्के के एक पहलु को अपनाया वहीँ हिटलर और Mussolini जैसे लोगों ने दुसरे को. दोनों ही सैधांतिक रूप से गलत थे.
ये बात जितनी सच है की हर मुद्दे को युद्ध से या कठोर फैसले से नहीं निपटाया जा सकता उतनी ही ही ये बात भी की कई बार युद्ध ना करने में परिस्थितियां पहले से भी बदतार हो सकती हैं. इतिहास पर नजर डालें तो हमें एक ही trend नज़र आएगा. हम पहले शांतिप्रिय रहे, फिर किसी ने हमपे हमला किया, चुकी हम शांतिप्रिय हैं तो हमने हिंसात्मक तरीका नहीं अपनाया और हमने उन्हें राज़ करने दिया, फिर जब परिस्थितियां बिगड़ी तो हमने हथियार उठाया और अपनों के लिए अपनों से भी लड़ना हुआ तो लड़े.
गांधी की माने तो महाभारत कभी हुआ ही नहीं. उनके विचार से महाभारत कोई सांसारिक युद्ध नहीं थी वो सिर्फ अपने अन्दर चल रही बुराई और अच्छाई के बीच की द्वन्द थी. मेरा मानना है की अगर ऐसा है भी तो अपने अन्दर की बुराइयों को मारने के लिए हमें ही आगे बढ़कर युद्ध छेड़ना होगा. एक माँ भी अपने बच्चे को सिर्फ लाड प्यार से नहीं पालती , वो भी कई बार कठोर फैसले करती है जिससे उसके बच्चे को अच्छी और बुरी बातों मे संतुलन बनाना आजाये.

कुछ दिनों पहले निर्भया केस का फैसला हुआ. सभी दोषियों को उनके जघन्य अपराध के अनुकूल सजा हुई.
अगर गाँधी को follow करें हम तो हमें कोई अधिकार नहीं किसी की जान लेने की, उनके उसूलों पे चलते तो उन मुजरिमों को कठोर से कठोर सजा तो मिलती लेकिन फांसी नहीं. इसके विपरीत अगर हम नाज़ी या हिटलर के उसूलों की बात करें तो इस कुकृत घटना के सभी लोगों को जिनपर अपराध सिद्ध होना अभी बाकी था, उन्हें भी मौत से कम सजा नसीब नहीं होती. दोनों ही situation इंसानियत के लिए किया गया एक immature फैसला होगा.

शब्द बहुत ही छोटा है - न्याय !!! भले ही वो किसी सामाजिक बुराई के विरुध या मानसिक बुराई के खिलाफ हो.. दूसरों के लिए हो या अपनों के लिए, ये हमेशा एक तर्कपूर्ण और भावनात्मक ठहराव मांगता है. कोई फैसला भावनात्मक बहकावे या सामाजिक दबाव में नहीं होना चाहिए. स्तिथियाँ जितनी जटिल होंगी उनपे फैसला लेना उतना ही मुश्किल होगा और उसके लिए मानसिक ठहराव और विचारों का गहरापन होना उतना ही ज़रूरी होगा.

तब जाकर हम कहीं कह पाएंगे की हमारे बीच कृष्ण आज भी मौजूद हैं.. हमारे अन्दर.. हमारे हर फैसले में.. हमारे लिए लड़ने के लिए नहीं बल्कि हमारा मार्गदर्शन करने के लिए. फिर किन्ही कौरवों को हराने के लिए. फिर किसी धर्म-युद्ध में  सच्चाई के लिए अपनों से लड़ने के लिए...

Sunday, 25 August 2013

che 'YOU' Guevara

आज मैं ऐसे ही बाजार में टहल रहा था. मैं एक स्टोर में घुसा जहाँ सस्ते में quoted tee shirts मिल रही थीं. वहां मैं जैसे ही अन्दर पंहुचा एक आवाज मेरे कानों में पड़ी " भैया कोई दूसरी दिखाइये, इसमें Che Guevara की पिक्चर अच्छी नहीं आई है." मैं पलटा तो ये आवाज एक पतले से बन्दे के अन्दर से आरही थी जिसे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था की अगर इसे अफ्रीका भेज दिया जाए तो इसे वहां भी BPL कार्ड मिलने में कोई तकलीफ नहीं होगी.
मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो मैं उसके थोडा और करीब गया. मैं उससे पूछना चाहता था की छोटू- जानते भी हो की ये कौन है या बस यूँ ही. लेकिन मैंने सोचा की अपनी इज्ज़त अपने हाथ में है इसलिए मैंने थोड़ी politeness दिखने का सोचा. मैंने उससे पुछा की ये है कौन ज़रा मुझे भी बताओ !!. उसने थोड़ी हसी दबाते हुए कहा.. "pheew .. आपको नहीं पता?? ये एक Mexican revolutionist थे. पढ़े लिखे तो लगते हैं आप."..
मुझे थोड़ी बेईज्ज़ती महसूस हुई. लेकिन कोई बात नहीं. मैंने थोड़ी सांस ली थोडा मुस्कुराया और उससे दूसरा सवाल पूछने के लिए खुद को तैयार किया. "क्या इनके बाद कभी कोई revolution नहीं हुआ? क्या कोई और हीरो नहीं हुआ पूरी दुनिया में इनके बाद? इनकी ही फोटो वाली शर्ट क्यूँ?". उसने कहा " बड़ी ऊल-जलूल बातें करते हैं आप, सभी Guevara ही पेहेनते हैं, इसलिए मैं भी लेने आया हूँ. फैशन का ज्ञान आपको नहीं है लगता है." ये कहकर उसने सामान लिया और चलता बना. लेकिन पीछे छोड़ गया एक सवाल. सवाल जो मेरे दिमाग में popcorn की तरह उछलकूद कर रहा था.

मैं खुद बहोत बड़ा फैन हूँ Che Guevara  का. मुझे उनके सिद्धांत पसंद हैं. एक सोच. एक इरादा.उसपर चलने का जूनून. लेकिन मुझे आपके बारे में शक है थोडा. हो सकता हैं की मैं गलत हूँ. लेकिन कहीं आप भी वैसे तो नहीं. जिसे Che Guevara एक चेहरा लगता है जिसे अपने tee shirt पर होने पर आप बुद्धिजीवी से लगेंगे इन बेवकूफों के बीच. क्या आपको पता है की ये है कौन. इन्होने अपने देश के लिए क्या किया. चलिए छोडिये इस सवाल को. किसी एक revolutionist का नाम ही बता दीजिये. दुनिया के ना सही अपने देश के ही किसी बन्दे का नाम लेलिजिए.
ओह...शायद मैंने कुछ ज्यादा ही 'उल ज़लूल' सवाल पूछ दिए.
 
लेकिन my dear friend विश्वास करिए आप भी इसी दौड़ का हिस्सा बन रहे हैं. Revolution आज एक पोस्टर पर बनी एक खूबसूरत पेंटिंग के बगल में लिखा एक शब्द बन कर रह गया है. आप किसी भी चीज़ को सिर्फ इसलिए follow करते हैं क्यूंकि दुसरे लोग उन्हें follow करते हैं. दुसरे देशों को छोडिये क्या आपको याद अहि की शुभाष चन्द्र बोसे जैसे लोग भी हमारे देश में हुए हैं जिन्होंने revolution जैसे शब्दों को अलग ही मायने दिए. लेकिन हमें वो याद नहीं हैं. हम उनके पोस्टर्स नहीं लगाते. हम उनकी बातें नहीं करते. और हम कर भी नहीं सकते. कैसे करेंगे. ना वक़्त है मेरे पास की उनके बारे में जानें और ना ही सौरव और कुलकर्णी के पास उनकी शक्ल वाली शर्ट ही है . भाई अच्छा थोड़ी लगता है.
 
मैं revolution की तो बात ही नहीं कर रहा. वो काफी भारी शब्द है. मैं बस आपकी और मेरी बात कर रहा हूँ. क्या हम और आप किसी भी जिंदगी के छोटे या बड़े फैसले खुद अपने दिमाग से कर पा रहे हैं. या हमारा हर फैसला जाने अनजाने दूसरों के फैसलों से प्रभावित हो रहा है. हमें इस बात को समझना चाहिए की दूसरों के चुनाव या फैसले उसकी खुद की परिस्थितियों के अनुकूल थी. ये परिस्थितियां आपके लिए पूरी तरह अलग होसकती है. जो आपके फैसलों पर भी प्रभाव डालेंगी. इसलिए आपका अंधी भीड़ में भागना थोडा जोखिम भरा हो सकता हैं. Revolution ऐसे रस्ते पर जाने को कहते हैं जहाँ आप खुद को पाते हैं. वो आप जो आपकी परिस्थितियों के अनुकूल हो. जहाँ आप अपनी जिन्दगी का कोई भी फैसला खुद के लिए करते हैं ना की दूसरों को दिखाने के लिए. एक बार आपने खुद को समझ लिया , मुझे लगता है किसी che Guevara या कम से कम उनकी tee shirt की ज़रुरत आपको नहीं ही पड़ेगी.
Happy Revolution

Thursday, 22 August 2013

One Dollar Rupee

आज़ादी के वक़्त जब हमारे economists  ने हमारे देश में समानता की बात की थी तब उनकी इच्छा हमारे देश में अमीरों को सडको पर लाना नहीं था. वो बस इतना चाहते थे की हमारे देश की कमज़ोर और ग़रीब जनता अपने जीवानसैली में थोड़ी बढ़ोत्तरी लाए.
चलिए एक बहोत ही उलटी situation imagine करते हैं. एक ऐसा देश जहाँ अमीर और अमीर हो रहे हैं और ग़रीब और ग़रीब. यही एकलौती सबसे बड़ी चिंता थी हमारे देश में आने वाले समय में.
रुकिए रुकिए ..कहाँ भागे जा रहे हैं आप... मैं कोई economics का lecture नहीं देने वाला आपको. बस मैं एक बहोत ही छोटी सी बात share करना चाहता हूँ जो अचानक से आज मेरे जेहन में तब आई जब मैं अपनी कार में पेट्रोल भरवाते हुए रोड के किनारे एक भिखारी को प्याज़ खाते देखा. क्या सच में वो गरीब था या किसी राज्य का राजा जो ख़ुफ़िया तरह से अपने राज्य के लोगों को जांचने आया है. जी हाँ मजाक ही कर रहा हूँ.
इस वक़्त हमारे देश में इन दोनों से भी अलग situation आ गई है. जरा सोचिए. आज ना तो कोई अमीर और अमीर बनने लायक बचा है और ना ही कोई ग़रीब और ग़रीब. अरे मैं बस इमानदार अमीरों की बात कर रहा हूँ. और ग़रीब..common...वो 5 रूपए में अपना पेट भर तो रहे हैं अब क्या जान लोगे उनकी.
वैसे जरा situation समझिए. हमारे पास आज सभी चीजें एक दाम पर मिल रही हैं. प्याज़, पेट्रोल, दारु.
प्याज़ - आपनी जमीनी ज़रुरत
पेट्रोल - आपके आराम का सामान
दारु - आपके ऐयाशियों का सामान
अब आप समझ सकते हैं की ये economists आपसे चीख चीख कर जो कहना चाह रहे हैं. जी हाँ!!! अब आपके समझ में आया ना. या तो आप अपना बहुमूल्य पैसा अपने ऐयाशियों में उडाएं, अपने आराम की जिंदगी जिसका आपने सपना देखा था उसमे उडाएं या फिर अपनी जिंदगी की सतही ज़रूरतों में उड़ाते उड़ाते निपट ही जाएं आप.
ये आपको हर माल 10 रूपए जैसा लग सकता है. लेकिन विश्वास करिए ये ही आज का समानता का उद्देश्य रह गया है.
आज हम डॉलरों की बात करते हैं...आज 62 रूपए कल 64.5.. मैं कहता हूँ फालतू की mathematics में पड़े हो दोस्त, ज़रा पाउंड्स पे नज़र तो दौडाओ वो तो हमारे mathematics की सारी झोल को खत्म करने में लगा है. हाँ भाई 100 रूपए को एक पाउंड में बदलना 85 रूपए को बदलने से कहीं ज्यादा कम सर दर्द का काम है.
मेरे कुछ दोस्त आज से कुछ साल पहले UK shift हुए थे. आज उनकी जॉब की salary में भले ही कोई बढ़ोत्तरी न हुई हो लेकिन जब मैं यहाँ से देखता हूँ तो उनकी मासिक आय लगभग 20% बढ़ी हुई दिखती है...आपको नहीं दिख रहा है क्या. मुझे विश्वाश है की जिस दिन आपको दिखेगा आपका विश्वास Brain-Drain जैसे imaginary शब्दों से उठ जाएगा.
अब समाज के बड़े बड़े विचारक इस imaginary concept पर कोई comment क्यूँ नहीं करते.
कल मेरे एक दोस्त से बेहेस हो गई. उसने कहा की क्यूँ हम पिछले कुछ दिनों से सारा काम छोड़कर इस बढती " रूपए की इज्ज़त " पर ही लम्बी लम्बी कहानियां गढ़ रहे हैं. क्या इससे प्याज़ की कीमतों में कमी आएगी या फिर डॉलर की कीमत में कोई कमी. उसका कहना मुझे कहीं से भी गलत नहीं लगा.
आज भी हमारे देश की 80% जनता " क्यूं " जैसे सवालों से अपना पेट नहीं भर्ती. उसे आज भी अपनी जिन्दगी चलाने  के लिए " क्या और कैसे " जैसे सवालों से जूझना पड़ता है. और अगर उसने इस सवाल का जवाब जैसे तैसे दे भी दिया फिर भी " क्यूँ " जैसे सवाल के जवाब देने की ना तो हमने शिक्षा दी है और ना ही अधिकार.
अरे मैं कोई बड़ी बातें नहीं कर रहा. मुझे आज बुरा बस ये लगा की आज mess में मुझे सलाद में प्याज नहीं दिखे. मैं सलाद में प्याज के ना होने पर जब इतना कुछ कह सकता हूँ अपनी भड़ास निकाल सकता हूँ , तो ज़रा उनका सोचिए जो खाने की प्लेट से एकलौते प्याज़ के चले जाने पर भी कुछ नहीं कह सकते, अपनी भड़ास नहीं निकाल सकते. यकीन मानिए आप ग़रीब नहीं हैं.


Thursday, 15 August 2013

State of Independence

Independence day. एक ऐसा दिन जिसकी ख़ुशी हर एक भारतीय को होती है। कुछ को ज्यादा, कुछ को कम। कुछ अन्दर से खुश होते हैं तो कुछ बस दूसरों की ख़ुशी के लिए। कुछ इसे सुबह जल्दी जग कर मनाते हैं तो कुछ देर तक सो कर।
ख़ुशी हो भी क्यूँ ना, कम से कम एक दिन तो हमें मिलता है जिस दिन हम हर तरह से खुद को तस्सली दिला सकते हैं की भईया सच में हम आज़ाद हैं। वरना कहाँ इस बेरहम भाग दौड़ वाली जिंदगी में इस बात का एहसास हो पाता है। दिन भर देश के एक बड़े शहर के छोटे से कोने में बहोत ही तेजी से पूरी दुनिया से जोड़े रखने वाली मशीन के सामने बैठे रहने पर , कहाँ इस आज़ादी का लुत्फ़ उठा मिलता है।
इसमें कुछ गलत नहीं है। हमें पूरा हक है की हम जैसे चाहें वैसे अपनी स्वतंत्रता को enjoy  करें। बात बस इतनी सी है की क्या हमें पता है की हमें अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कैसे करना है या हम कैसे कर सकते हैं और फिर भी नहीं करते। हम आज भी इंतज़ार करते हैं की कोई आकर हमारी बात आगे रखे। कोई आए जो हमारी दिक्कतों और परेशानियों का solution ढूंढें। हमें कुछ बोलने, कुछ चित्रित करने,कुछ सोचने से पहले भी इस बात का डर होता है की कहीं ये  system हमारे सभी भावनाओं को दबा ना दें। सिर्फ इसी इसी डर से हम अपनी बची खुची इच्छाएँ भी दबा देते हैं। हम भूल जाते हैं की इस व्यवस्था की एक एक कड़ी हमारी चुनी हुई है। इसकी एक एक नीव हमारी मजबूती और योगदान को दिखाती है न की हमारी कमजोरी और असहाय हालत को।
हम भूल गए हैं की हमने ये कही सुनी आज़ादी कैसे, किन मुश्किलों में पाई है। इसमें हमारी कोई गलती नहीं है। हमें आज़ादी मिली ही उपहार में है। हमने कहाँ किसी नेहरु गाँधी को सुना है। हम तो ना थे 1947 की उस पाकिस्तान से आने वाली ट्रेन में जिसमे सैकड़ो लोग मारे गए थे। उन दंगो में हमारे मकान और दुकानें नहीं जलाई गई थी।
भईया.. उपहार तो हमें आज भी बखूबी याद है, बस उपहार देने वालों को भूल गए हैं। ज्यादा नहीं बस थोडा सा। और उपहार की कीमत थोड़ी पूछी जाती है देने वालों से. सो हमने भी कभी ये जानने की गुस्ताखी ना की। इसमें गलत तो कुछ ना था।
हमारे ऐसे होने का एक बड़ा कारण ये है की हम आज़ादी संभाल नहीं पा रहे हैं। लेकिन ये बात हम कभी नहीं मानेंगे। हम कभी नहीं मानेंगे की हम आज भी अंदर से गुलाम है। गुलाम अपने ही लोगों के हाथों। अपनी ही भावनाओं के हाथो। हम आज अपने सपनो के पीछे नहीं भागते। हम किसी और के पीछे भागते हैं जो किसी और के पीछे भागता है उसके सपने पूरे करने के लिए। क्यूंकि हम अपने पसंद का काम सिर्फ इसलिए नहीं करते क्यूंकि किसी अनजान बन्दे ने हमसे कभी कह दिया था की ये काम बेकार है, या सामाजिक रूप से तिरस्कृत। ये वही लोग होते हैं जो समाज में समानता की बात करते हैं। क्यूंकि हम उसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं जिसे पता भी नहीं की उन्हें चाहिए क्या। जो रोज सुबह जगता है और हफ्ते के पांच दिन किसी और देश की दिक्कतों और समस्यायों  को एक फ़ोन पर सुलझाता है।
हम अपनी ताकत भूल रहे हैं। हमे इस बात का एकसास नहीं है की जो इंसान फोन पर दुसरे मुल्क की दिक्कतों का निवारण कर रहा है वो व्यक्तिगत रूप से इस देश की तरक्की में कितना योगदान दे सकता है।
हमें देश की तरक्की में अपनी हिस्सेदारी पहचानने की ज़रुरत है। और इसमें अपना योगदान देने की भी। हमे खुद को इस बात का एहसास करवाने की ज़रुरत है की संवैधानिक, सामाजिक और मानसिक स्वतंत्रता में क्या अंतर है। और इन तीनो के बिना किस तरह से हमारी आजादी बस नाम मात्र है।
dependent होकर अपने आप को indepentent कहना और अपने ही जैसे दुसरे dependents को इस भ्रम में रखना मुझे नहीं लगता हमारे लिए ज्यादा हितकर होगा।
दो स्वतंत्रताएं तो शायद हमें हमारे पूर्वजों ने दे दी है। बाकी सिर्फ मानसिक स्वतंत्रता है। उम्मीद करूंगा हमें जल्द ही वो भी हासिल हो। आमीन।।
Happy brthday independents...

Friday, 9 August 2013

शायद कल

जब दिल्ली में कांड हुआ तब मैं वहां पर ही था. आप भी सोच में पड़ गए होंगे की भला किस कांड की बात कर गया मैं.एक तो हुआ नहीं है वहां. रोज नए मसाले के साथ वहां की मीडिया हमारे सामने हाज़िर रहती है. इतना मत सोचिए जनाब .. आप किसी भी केस की पहले, साथ और बाद के हालात को ले सकते हैं.

हम इंजीनियरिंग स्टुडेंट्स को अक्सर मेस में सड़ा खाना ही नसीब होता है. और खास कर दिल्ली जैसे शहर में तो रोज बाहर खाना हम जैसे afford  भी नहीं कर पाते. ऐसा नहीं है की हमारे घर वाले पैसे नहीं देते हमें. वो तो बस ऐयाशियों में उड़ जाते हैं. सो हम अक्सर रात को खाने के बाद दिल्ली मेट्रो में कुछ ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने निकल पड़ते. भईया दिल्ली है ये... यहाँ रात आठ बजे भी रौनक अपने सातवें आसमान पर होती है.

रात में अपने assignment  के बोझ तले दबा ये इंजिनियर जब सुबह कुछ देर से उठा तो पूरे हॉस्टल का माहौल कुछ बदला सा था. ऐसा लग रहा था की किसी exam  का रिजल्ट अचानक से गया हो. उन कुछ मिनटों में मेरे ऊपर क्या गुज़री होगी ये शायद आपको बताने की ज़रूरत नहीं है.

मैं बहोत कुछ समझ पाता तबतक एक बंदा एक न्यूज़ पेपर का front पेज लेकर मेरे पास आया. मैं पढ़ पाता तबतक उसने सारी कहानी एक सांस में सुना दी. उस लड़की के बारे में, जो 10  दिन तक मीडिया की TRP बढा कर इस दुनिया से जाने वाली थी. और उन इंसानों के बारे में भी जो जाने किस नस्ल के थे. शायद इंसान भी ना हों. क्या पता.

करीब आधा घंटा इसपर देने के बाद मैं कॉलेज के लिए निकला. वहां भी यही हाल. लंच पर भी. सब की जबान पर एक ही बात थी. आज लोगों में गम था गुस्सा था. सभी इंडिया गेट जाना चाहते थे. सभी अपना आक्रोश ज़ाहिर करना चाहते थे. लेकिन आज लोग भटके हुए थे. डरे हुए. उन्हें ये समझ नहीं आरहा था की गुस्सा किसपर उतारें. हमारी व्यवस्था पर , हमारे समाज पर या हमारे लड़के लड़कियों पर. और सबने गुस्सा उतरा. किसी एक पर नहीं.  सभी पर उतरा.

लेकिन
सवाल अभी भी वही था... सामाजिक उत्पीडन तो हुआ था. लड़कियों का और लड़कों का. वो भले ही शारीरिक हो या मानसिक. लड़कियाँ अब रात में अपने घरों से निकलने से डरने लगीं थी. वो अपने साथ के पुरुषों से घबराने लगी थीं. लड़के अब किसी लड़की को देखने से पहले सोचते थे. किसी हमशक्ल के धोखे में अब कोई लड़का किसी लड़की को नाम से नहीं पुकारता था. बाप अपनी बेटी को दिल्ली से बाहर पढाना चाहते थे. जिनकी बेटियां पहले से दिल्ली में थीं उनके डॉक्टरों की कमाई उनके blood pressure की तरह बढ़ने लगे थे. लड़के किसी अनजान लड़की की मदद करने से घबराने लगे थे. उन चौपालों पर अब लड़कियों की बातें नहीं हुआ करती. अब कोई 'देख भाभी आज पीले सूट में आई हैं' नहीं कहता था. तेरी-वाली मेरी-वाली पर शर्तें नहीं लगती अब.  Ladies  कम्पार्टमेंट में कोई मजनू किसी का पीछा करते नहीं घुसता था. अब हमने भी खाने के बाद ठंढी हवा खाने और आँखों को सुकून दिलाने की अपनी आदत को खत्म कर दिया था. दिल्ली में रौनक तो थी लेकिन डरी, सहमी और असहाय.

व्यंग लिखने की सोचा था ..लेकिन लिखा नहीं गया ..शायद ठंढी हवा खाने की आदत अभी पूरी तरह गई नहीं. शायद ये निगाहें अभी भी रात के आठ बजे दिल्ली के मेट्रो में बेबाक, बेख़ौफ़ और बिंदास रौनकों के उम्मीद में हैं. शायद अभी हमने उमीदें रखनी खत्म नहीं की है. शायद ...